उबारता उजियारे तुम्हारे
अथाह अंधकार में
तुम मेरे हाथ लगी
सुलगी मंद्र आंच
निपट भोली-भाली मोमबत्ती ।
अथाह अंधकार
अभी तक बढ़ता जा रहा हूं मैं
उबारे हवा से तुम्हारी जोत
उबरता खुद उजियारे तुम्हारे
पैरों लिपटती विपदाओं से !
***
अंतिम दिन यह दुनिया
कविता होगी
अंतिम वृक्ष
प्रीत के मरुस्थलों
निपजेगी केवल प्रीत
चिड़िया लेगी फिर विश्राम
वृक्षों की रेशमी छाँव में ।
पहले दिन की तरह
अंतिम दिन यह दुनिया-
फिर से तेरी मेरी होगी ।
***
मैंने नहीं दिया उपहार में शब्दकोश
हो सकते हैं थोड़े से
पुष्प की पंखुड़ियों जितने
या फिर अनगिनत
किसी महल में लगे पत्थरों जितने
शब्द-तुम्हारे और मेरे बीच ।
नहीं बनता पुष्प
न ही महल
ऐसे अर्थहीन शब्दों का हम क्या करें ?
इसी कारण
मैंने नहीं दिया उपहार में शब्दकोश तुम्हें
इसी कारण
मैं लौट आता हूं बहुत बार
अबोला तुम्हारे आंगन से ।
***
पाना-चुकाना
पढ़ाता हूं क्लास में
क्या है एसेट्स
क्या लायबिलीटीज
विचार करता हूं-
तुम क्या हो मेरे लिए ।
क्या तुमसे पाना है
कि कुछ चुकाना है ?
यदि पाकर चुका कर
पार उतरना है
तो किसके
अपने या तुम्हारे ?
***
थके हुए शब्द
पर्दा उठाओ
प्रेक्षागृह में चिल्लाया कवि
अकेला बैठा था-
रंगसाला में
कौन उठाता पर्दा ?
शब्द थे
कवि ने दी
उन्हें बहुतेरी सियर्सल
करना था शब्दों को नाट्य
उठाना था पर्दा-
अर्थ से ।
वे ही दौड़े
जिनमें, जिनको, जो भी
करना था अभिनय
नहीं हुआ ।
अखिर कवि ने किया
शब्दों का नाट्य
कवि ने देखा
नाट्य देखते –
थके हुए शब्दों को ।
***
ताकते मुंह तुम्हारा और मेरा
काश ! यदि शब्द नहीं होते
तुमसे और मुझ से पहले ।
अक्षरों की तरह
हम भी जुड़ कर होते
सृष्टि का पहला शब्द ।
रचते अर्थ
पहला पद
पहला पदार्थ ।
नहीं पहचानते हमें जगत के बातूनी
तकते मुंह तुम्हारा और मेरा ।
हम उस शब्द में साथ मुस्कुराते
जैसे अवश्य मुस्कुराते होंगे
विद्वानों को माथा-पच्ची करते देख कर
ढाई-आखार !
***
इस तरह रखा तुमने
ठंडी-ठर लाल सुर्ख नाक
खोज रही थी गर्म उष्मित देह
नर्म-धवल खरगोशों की ।
खरगोश ले रहे थे विश्राम
तुम्हारी छाती की आंच में ।
थरथराती अंगुलिया तुम्हारी
उतर रही थी भीतरी परतों तक
बाहों में आए दरख्त के ।
सहला रहा था दरख्त तुम्हें
अपनी एक-एक डाल से
सहसा छोड़ दी जड़े
गूंगी चित्कार के साथ ही
यश है तुम्हें
तुमने नहीं लगने दिया धरती के
एक भी पात बेचारे दरख्त का ।
सहेज ली सम्पूर्ण धरा
सहेज लिए साथ ही
तुमने तुम्हारे किसी गहरे पानी में-
सम्पूर्ण दरख्त ही धरती के ।
इस तरह रखा तुमने
हमेशा अक्षत सृष्टि को ।
***
नगर के नथुनों में पहुंचे प्राण
(अशोक वाजपेयी का काव्य-पाठ सुनने के बाद)
कर्फ्यू था
खुशबू लापता ।
हवा में गश्त थी
समकालीनता की ।
आलोचना के फौजी
ले रहे थे घर-घर तलाशी ।
यशस्वी नहीं था कवि
सौंपने से पहले बयाज
सूंघने पर खुशबू नहीं आई
उस में जनरल साहब को ।
किया कवि पर उपकार
फेंक दी खिड़की से बाहर !
हवा में हिल-मिल गई खुशबू
नगर के नथुनों में पहुंचे प्राण ।
अभी भी चालू है-
समकालीनता ख़ी पेट्रोलिंग तो !
***
अग्नि-1
दाह नहीं है अग्नि
स्पर्श है उजियारे का
जलताहै उतना
जितना अंधेर है
जलता है जो नहीं
लौटता फिर से
लौटी थीं जैसे
जानकी !
***
अग्नि-2
धैर्य नहीं है तुम्हारे
अग्नि
थकती नहीं तुम
नश्वरता पी-पी कर ?
लेकिन
बतलाओ तो अग्नि !
तुम नश्वरता को प्राण देती हो
या अपने लिए
नश्वरता के प्राण लेती हो ?
***
अग्नि-3
कहां होती है
जब नहीं होती
अग्नि !
जल
थल
नभ
हवा ?
अदृश्य नहीं होती अग्नि
दृष्टि में ही सो जाती है !
***
अग्नि-4
बिरहन है अग्नि
बाट जोहती
जल की !
जल जोगी
लौट जाता
अलख जगा कर
देहरी से ही
इस बिरहन की !
***
अग्नि-5
जलाती नहीं
पकाती है अग्नि
आंवें में घट
धरती में बीज
देह में आत्मा
अग्नि रचती है
जल-थल-नभ-वायु
घट में
बीज में
आत्मा में
खोजती हुई रास्ता
अपनी भास्वरता का !
***
अनुवादः नीरज दइया
मालचन्द तिवाडी (11 मार्च, 1958) राजस्थानी कवि-कथाकार हैं । आपका कविता संग्रह- “उतरियो है आभो” जिसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला के अलावा राजस्थानी में दो कहानी संग्रह भी प्रकाशित हैं । आपकी हिंदी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित एवं चर्चित रही हैं ।
श्री मालचंद जी को पढना सदा ही संतुष्टि देता है. बहुत ही कम पढ़ने को मिलती है आजकल ऐसी रचनाएँ जिनमे चिंतन, बोद्धिकता, घ्राणशक्ति, चमत्कारिकता, चित्रात्मकता, आदि अपनी तरुनाई में श्रृंगारित होते हैं. आपकी कविताओं की श्रृष्टि की बुनावट में भावों के पंचतत्व सजीव होकर अपने शिल्प की दस्तकारी से एक शाश्वत पिंड का निर्माण करते हैं. आपकी रचानों के बिम्ब मनमस्तिष्क में भित्तिचित्र से अंकित हो जाते हैं. स्वानुभूत भावों का ताना अपनी बिम्बात्मकता के घर्षण से एक उदीप्त आभा का संचरण करता है. कविताओं का आदि अपनी कोमल छुअन से पाठक मन को अपने साथ बहाकर उस पराकाष्ठा तक ले जाने की क्षमता रखता है जहां एक महाविस्फोट पुनः नयी और सुखद अनुभूति का सृजन करता है.
ReplyDeleteमेरे शब्दों में वो क्षमता नहीं कि मैं श्री मालचंद जी के सृजन को व्यक्त कर सकूँ. मैं तो अभी उस दिए जितना भी उजाला नहीं कर पाता जो इस प्रकाशवान सूरज को दिखा सकूँ. श्री मालचंद जी को और उनकी चिरस्मरणीय व अनुकरणीय रचनाओं को नमन !
यहाँ मैं आदरजोग श्री नीरज जी को नमन करना भी कैसे भूल सकता हूँ जिनकी वजह से इतनी ख़ूबसूरत रचनाएँ पढ़ने को मिल रही हैं. श्री नीरज जी के व्यक्तित्व, कृतित्व और समर्पण को ह्रदय से नमन !! मुझे इस ब्लॉग के बारे में जानकारी नहीं थे वर्ना मैं बहुत पहले यहाँ अपनी हाजिरी लगाकर स्वयं को सौभाग्यशाली समझता. फिर भी देर से ही सही, आने का सौभाग्य प्राप्त हुवा, और बहुत ही आनंदित हुवा.
आभार !