रेत में नहाया है मन
संपादन एवं हिंदी अनुवाद : नीरज दइया
शारदा कृष्ण की कविताएं
शारदा कृष्ण संस्कृत की प्रवक्ता रही हैं।अपने दमखम
पर उन्होंने संस्कृत भाषा में गोल्ड मैडल हासिल किया।धर्मशास्त्र में
पीएचडी की। 1999 में उन्होंने कालिदास के
प्रसिद्ध नाटक 'अभिज्ञान शाकुंतलम' का राजस्थानी भाषा में 'सकुन्तला री
औळख' शीर्षक से अनुवाद किया। 'धोरां पसरयो हेत' शीर्षक से 2004 में उनका
राजस्थानी कविता संकलन तथा 'संवाद संभव' शीर्षक से हिंदी कविता संकलन आया।
उन्होंने बीसवीं सदी के राजस्थानी महिला लेखन ग्रन्थ का सम्पादन भी किया
।अनुवाद के लिए उन्हें बावजी चतर सिंह सम्मान और काव्य-सृजन के लिए आधा
दर्जन सम्मानों के साथ ही शिक्षक सेवा के लिए भी राज्य स्तरीय सम्मान से
नवाज़ा जा चुका है।
आईदान सिंह भाटी की कविताएं
कवि परिचय : आईदान सिंह भाटी का जन्म: 10 दिसम्बर 1952 नोख (जैसलमेर) में हुआ। शिक्षा : एम.ए.
हिंदी (सौंदर्यशास्त्र) एवं पीएच.डी.। आपकी काव्य-कृतियां ‘हंसतोड़ा होठां रो सांच’
एवं ‘रात-कसूंबल’ बेहद चर्चित रही और ‘आंख हींयै रा हरियल सपना’ पर साहित्य
अकादेमी पुरस्कार तथा राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति सर्वोच्च पुरस्कार
अर्पित किए गए। ‘खोल पांख नै खोल चिड़कली’ एवं ‘समकालीन साहित्य और आलोचना’ इन
दिनों चर्चा में है। आपने गांधीजी की आत्मकथा के अतिरिक्त राईनोसोर्स की कृतियों
का राजस्थानी अनुवाद तथा ‘जागती-जोत’ (मासिक) का संपादन भी किया। राजकीय
महाविद्यालय के हिंदी विभाग से सेवानिवृति के उपरांत स्वत्रंत लेखन।
संपर्क : 8-बी/ 47,तिरुपति नगर , नांदडी, बनाड़ रोड़,
जोधपुर (राजस्थान) 342015
हंसते
हुए होठों का सच
हरेक हंसते हुए होठों में
हंसी नहीं होती
कई बार अनइच्छा के भी
आदमी को रहना
पड़ता है हर्षित
वर्षों से रंगी काली सड़क
सिर्फ चलने के ही काम नहीं आती
जब वह टूटती और फिर से बनती है
तुम नहीं जानते कितने हृदय पोषित होते हैं ?
सिर्फ चलते रहना ही नहीं
यह दूसरा मसला खास है,
हरेक होंठ हंसा नहीं करते
सावन-भादों की घटाओं में
कजरारी रेखाओं के आकर्षण में
तुम्हारी कलम, आंख के काजल की कौंपलें जीती हैं
लेकिन वह नहीं जानती कि
निरंतर पड़ते ये विकराल-अकाल
उन नखराले नैनों में
चिंता की छायाओं का काजल फेर देते हैं
जो दस वर्षीय बालिका से लेकर
अस्सी वर्ष के बुजुर्ग की आंखों में बस जाता है।
जानते हुए भी आदमी कई बार
जानवर की जिंदगी
जीता है
तुम नहीं जानते कि आदमी क्यों हंसता है?
परंतु उसकी समय-समय की हंसी एक-सी नहीं हुआ करती।
दबड़क-दबड़क बातों में घोड़े दौड़ता
हरखू जानता है यह बात
कि उसके जीवन की छकड़ा-गाड़ी
सदा ही चूंचाड़ करती चली है
फटी पगरखी, साफे की दुर्गत
चाल में गांठें बांधी अंगरखी
कभी इसका अहसास नहीं होने दिया
कि आदमी दोनों टंक खाता है।
परंतु अब पोत्र को चलना सिखाते वक्त
वह घिसटती जिंदगी की बातें नहीं
दड़बड़-दड़बड़ घोड़े दौड़ाता है
क्यों कि वह जानता है कि उसके विगत की बातें
कष्ट में कलपती कहानियां सुनने
उसका वह लड़का भी तैयार नहीं होता था
तो फिर वह तीसरी
पीढ़ी क्यों सुनेगी?
सागर की छाती को चीर
कलेजा निकालती
उसकी लहरों का सुख लेते
सोयूज अपोलो के साथ
कुदरत की ऊंचाइयों से होड लेती
यह हरखू की तीसरी पीढ़ी है।
युगों-युगों से सोए ज्वालामुखी कभी
अचानचक फूट जया करते हैं।
कभी यह भी सोचो
कि दांत निकाले भी जाते हैं
और कभी भिंचा भी करते हैं।
कौन जानता है कि कितने युगों से
फाटी-फटी व गहरे धसी आंखें
एक बेहतर जीवन के
लिए हाथ-पैर मारती हैं
पर वह बेहतर जीवन
कभी नहीं हुआ नसीब
पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों
गहरे धसी व फाटी-फटी आंखें
खोती जाती बेहतर जीवन का सपना
भरमाते सपनों के
मकड़-जालों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी उलझती जाती।
यह हरखू जानता है
कि कागजी घोड़े फगत बातों में ई दौड़ते हैं
और पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां
इन बातों की कहानियों में स्वाह हो जाती है-
लेकिन यह भवितव्य है
यह भवितव्य है बेटा। जो कभी अनदेखी नहीं रहता
हरखू की पीढ़ी के दर्शन का यह सच
चांद, तारों, धरती और सूर्य जैसा सत्य है,
धरती सूर्य के चारों तरफ घूमती है,
यह भवितव्य है।
ये डूबी-डूबी आंखें फटी की फटी रह जाती
यह भवितव्य है।
सर्द रातें- अगन के इर्द-गिर्द बातों के बवड़र
झौंपड़े में जगह नहीं, क्यों कि बच्चे सोए हैं।
यह भवितव्य है
परंतु उसकी आंखें उस दिन आश्चर्य से फटी की फटी रही
जब जुगतिये ने लाठी को देखते हुए पूछा-
‘यह बात सच है क्या पिताजी-
भैंरो कहता था कि पानी में भी आग होती है?’
वे फटी-फटी आंखों से देखते बोले-
‘बुजुर्ग बातों में कहा करते थे बेटा-
कि समंदर के पानी में आग होती है।’
कौन जानता है किसे पता।
संसार की यह विशालकाय भूखी धरा
जब तंदूरे-की तारों तक पहुंचती है-
‘हे राजा बाबू भावी नहीं टलती है ।’
ये सबद आकाश और धरती में घूमते हैं
बाड़े में मिट्टी थपथपाते
हरखू के हाथ यह बात जानते हैं
कि मिट्टी और रोटी कितनी करीबी है।
पर वह फटी-फटी आंखों
अनेक सुनहरे सपने संजोते सोचता है
सातों पीढ़ियों की सिसकियों के संग-
‘शायद अगले जीवन में
यह जानवर जैसी जिंदगी फिर ना मिले।’
खेतों के खलों में, गायों के चरवाहे
और बिना मालिकों के ऊंठों के झुंड
लूओं से सजे धोरे
पानी के इंतजार में डेरे
फटी-फटी आंखों से
सातों पीढ़ियों की सिसकियों के साथ
तंदूरी तारों के संग गाते हैं -
‘शायद यह जानवर जैसी जिंदगी निकल जाए।’
और मनुष्यों के सिर
उन अबोले मौन धारण किए चहेरों के
चरणों में झुक जाते हैं-
‘संभव है आने वाली पीढ़ियां सुधर जाए।’
और वह तीसरी पीढ़ी
गुप-चुप सदा अंधेरे
ना मालूम क्या फुसफुसाता
भाग्योड़ी दीवारों को धीरे से कहता है-
‘लड़के बिगड़ गए, सेठ जी को सलाम नहीं करते।
चांद-तारों को छूने चले हैं
इनको मालूम ही नहीं कि आदमी का पेट कैसे पलता है।’
वे कहते हैं- ये अलग-अलग मसले हैं-
(कि आदमी पानी क्यों पीता है।)
परंतु चारों तरफ दो जूण रोटी के लिए भटकता हुआ
हरखू हंसते-हंसते कहता है-
‘लड़के ठीक कहते हैं
दिशाएं चार नहीं, चौसठ हुआ करती हैं
हां,
यह बात अलहदा है
कि आदमी पानी क्यों पीया करता है
हर आदमी जीने को जिया करता है
परंतु हरेक होंठों का सच
हंसी नहीं हुआ करता है।
अनुवाद : नीरज दइया
मीठेस निरमोही की कविताएं
कवि- मीठेस निरमोही
कवि परिचय : 30 सितम्बर, 1951 गांव राजोला खुर्द
(पाली) राजस्थान में जन्म। आधुनिक राजस्थानी कहानी और कविता के प्रतिनिधि
हस्ताक्षर। संपादक-अनुवादक के रूप में विख्यात। राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं
संस्कृति अकादमी, बीकानेर से पुरस्कृत। वर्षों साहित्यिक पत्रिका “आगूंच” का संपादन-प्रकाशन,
"कथा" संस्था के सचिव। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। चर्चित राजस्थानी
पुस्तकें- "आपै रै ओळै-दौळै (कविता संग्रह) एवं "अमावस, एकम अर चांद" (कहानी
संग्रह) । हिंदी में “चिड़िया भर शब्द” तथा “चेहरों की तख़्तियों पर” पुस्तकें प्रकाशित।
स्थाई संपर्क :
राजोला हाऊस, ब्राह्मणों की गली, उम्मेद चौक, जोधपुर।
मोबाइल : 09549589222 ई-मेल : umaid1954u@gmail.com
थार-1
फैल जाता पल-भर
में
हो उठता उग्र
क्षण-भर में
जैसे खेलते-खेलते
बदलता है तू
चेहरे।
लगता है-
मनुष्यों से
जोड़ लिए
रिश्ते!
०००
थार-2
जमीं-आसमां
जितनी फौलादी
तुम्हारी
कद-काठी।
हवा जैसे
सांस तुम्हारी।
समुद्र के उनमान
फैला है तू।
ना कभी थकता
ना कभी हारता।
वाह-वाह
मरुधरा के मानवी।
०००
उत्साह
दिन निकलते ही
नापने लग जाता
आकाश
दौड़ते-दौड़ते
पहुंचता है-
अनंत अपार।
लेकर दाना
लौटता है
चीरते हुए
अंधेरा।
अपने भाग्य की
करते हुए सराहना
नृत्य करता-
घोंसला।
०००
पहचान
हवाओं को मुस्कान
और राग,
सौंप दें पेड़ों
को महक।
स्वतः जंगल
पा जाएगा
अपनी पहचान।
०००
अस्मिता
तुम्हारे मंदिर
गूंजती शंख-ध्वनि
मेरे घर-आंगन
बजती
थाली कांसी की।
तुम्हारी और मेरी
यही अस्मिता की पहचान।
हमीं से तो है-
यह नाद
गूंजता हुआ
संपूर्ण आकाश में
क्यों मेरे देव ?
०००
मां
बुलाकर मुझे
धैर्य ही तो
सौंपना चाहती थी
तुम।
तुम्हें और
तुम्हारी कोख को
यह असहास कि
सिर्फ कष्ट पाने से ही
कोई मां, नहीं बन
जाती मां।
दागदार भी हो जाती
है
जब खुद की औलाद
ही भूल जाए
पुत्रों को जन्म
दे कर भी
कहलाती निपूती तुम।
परन्तु यह क्या
मुझे देख कर सामने
डूबी गहरे
वात्सल्य में
भूल गई अपनी
अस्मिता ई तुम मां !
तभी तो मैं
कोई शोक-गीत रचने
से पहले
चाहता हूं रच
लेना तुम को
मेरी मां सुनो !
कि फिर ना दागदार
हो कोई कोख।
०००
अनुवाद : नीरज दइया
बी. एल. माली ‘अशांत’ की कविताएं
सब हारेंगे – सब हारेंगे
हेली(आत्मा) मेरी !
नहीं मच सकेगा घमसान
धूल नहीं उड़ सकेगी आसमान
नहीं जीत सकेगा कोई युद्ध में
सब हारेंगे – सब हारेंगे ।
हेली मेरी !
अबकी बार नहीं देख सकेंगे युद्ध
नहीं लिख सकेंगे युद्ध की विगत
नहीं रच सकेंगे अब की कोई युद्ध के गीत
युद्ध के कवियों का अंत
इंतकाल वक्त के हाथों हो गया है ।
हेली मेरी !
होंगे नहीं कबई अब स्त्रियों के जौहर
नहीं लड़ेंगे अब कभी कबंध से
रणक्षेत्रों पर बस गया है आदमी
युद्ध नहीं होगा ।
हेली मेरी !
नहीं होगी लड़ाई
आदमी और आदमी के बीच
अणु-परमाणु हथियार लड़ेंगे
धरती-पाताल-आसमान में
नहीं जीत सकेगा कोई
सब हारेंगे – सब हारेंगे ।
हेली मेरी !
नहीं हकूमत के लिए कर सकेगा अब कोई
अश्वमेघ
नहीं मांड सकेगा कोई महायुद्ध
अब नहीं बन सकेगा कोई धरती का भूप
अब नहीं उगा ही रहेगा किसी की सत्ता का सूरज
सब जान चुके हैं हकूमत का अर्थ
सब जान चुके हैं लड़ाई के मायने
अपनी खाल से बाहर नहीं आ सकेगा कोई
सब बचाएंगे
बीज का बाजरा ।
***
काया भूखी दर्जिन है
हेली मेरी !
बांच ले तू धरती का श्रृंगार
गगन का दुख बांच ले
जीवन सृजन है ।
हेली मेरी !
सुख सूरतों की मंजिल चल
बता दे रास्ता सही बोलने वाला
सूरतें जग का दर्पन हैं ।
हेली मेरी !
हिंगलू के पलंग बैठ
सुना दे भीतरी बातें
काया भूखी दर्जिन है ।
हेली मेरी !
मनुष्य को निर्भय होने की सुध दे
वह बनाता है
जग को डूबोने के स्थल
अर्धराजन मांड कर बता दे
करतब मनुष्य-योनी के
जग-जीवन अर्पण है ।
हेली मेरी !
गगन-मंडल में पड़ गई है तरेड़
जीवन की सुध दे
निर्भय कर दे मनुष्य-जाति को
हेली मेरी !
रास्ता जीवन का बुहार
जीवन सृजन है ।
***
जीवन है जग का आधार
हेली मेरी !
जीवन है जग का आधार
मनुष्य को भूले नहीं बनेगा ।
भीतर उग आया है विध्वंश
मंडरा रहा है खतरा जीवन पर
मनुष्य सुन रहा है पूर्वी आवाजें
विध्वंध-राग बज रही है ।
हेली मेरी !
मनुष्य से दूर मत जाना
जीवन दे मनुष्य-योनी को
माया देख कर कंपित है जग सार
दूर है मनुष्य से सुख-स्वप्न
सांसों में खुशबू दे हे प्रगाढ़ सहेली ।
हेली मेरी !
सुख गठरी
ऊंचवा दे जग को
मनुष्य को दे दे
सपने सुहावने ।
कोयल गा रही है मृत्यु-राग
मोर कुरलाता है दिन-रात
विनाश हंस रहा है हड़-हड़ ।
हेली मेरी !
मनुष्य की बुद्धि की डोर पकड़
सच के रास्ते ले आ उसे
साथ की सहेली !
विध्वंध को गाड दे
कोयल को सुहानी आवाज दे
मृत्यु-राग को मृत्यु दे
धरती को निर्भय रखना
हेली मेरी !
जीवन है जग का आधार
मनुष्य को भूले नहीं बनेगा ।
***
रात अंधेरा लिए आती हाथ में
हेली मेरी !
अचरज में नहीं है आदमी
डूब डूबो रही है मानव-हेत
रात अंधेरा लिए आती हाथ में
कांस ऊगी हुई है धरती ऊपर
निपट अंधेरे के पड़ रहे हैं हाथ
चूक से नहीं चेतना लेता है आदमी
अंधेरी जोहड़ी लेगी भख !
हेली मेरी !
मुड़, बचाले मिनखजात को
जोग जगाएं अपूर्व भूत
बिड़द बचेगी तो ही
ज्योति दीपेगी
हेली मेरी !
युग के पीछे कीचड़ में है पैर
हाथ मवाद से गहरे लिपटे हुए
भयानक कहराहट लिए आवाज
बच्चे तुम्हारे डरेंगे !
हेली मेरी !
रात अंधेरा लिए आती हाथ में
आ, बचा ले मानव-जीवन ।
***
धरती कितना ढोती वजन
हेली मेरी !
धरती कितना ढोती वजन !
आकाश कितना भारी हो गया !
तुम्हारे पांवों बांध दिए पत्थर
तुम कितनी दोरी चलती हो मेरी साथिन
तुम कितनी दोरी चलती हो मेरी काया की मंगेजन ।
हेली मेरी !
तुम्हारे लिए ही बनाई है
रेडियोधर्मी विकिरणें
बेसुध कर दी है तुम्हें
सूंधा कर सूंधनी
तुम्हारे भीतर लगी हुई है आग
परमाणु अस्त्र-शस्त्रों की
‘स्टार-वार’ की
तुम्हारी सूरत अलसा गई है मेरी साथिन
मुरदानगी छा गई है चेहरे पर
रौनक चर गई है बीसवीं सदी
हेली मेरी !
तुम देखो भीतर के फोड़े
मानवता की काया के भीतर उभरे हुए ।
भीतर ऊग आया है विध्वंध ।
भीतर जोत देख मेरी साथिन
भली-भांति देख !
हेली मेरी !
कच्ची कूंपल छोड़ दी जगह
विनास देख मुरझा गई है
कैसे पांघरेगी वह !
चिड़िया का चूंहचांट कौन सुने ?
वह रोती फिरती है बेचारी
सुनाती फिरे है जीवन-राग ।
हेली मेरी !
अनंत में उग आया है विध्वंश
कौन सुनेगा गायों का रंभाना
कौन देखेगा मग्न होते खरगोसों की किल्लोल
हिरनियों का हृदय कौन देखेगा ?
हेली मेरी !
तुम्हें सुनाई पड़ती है क्या कबूतरों की शांति-वार्ता
मुड़ता दिखाई देता है क्या तुम्हें आदमी
कहीं कोई बाज तो बैठे नहीं बतला रहे हैं ।
तुम भली-भांति देख लो !
हां, तुम भली-भांति देखो मेरी साथिन
कहीं कोई सिकरा (बाज) शिकार नहीं कर ले काया चिड़कली का
मुंह में ले नहीं ले समस्त वैभव
धरती का
तुम्हें दिखाई देती है क्या जीवन-पंखुड़ियां !
हेली मेरी !
शायद तुमने बहुत अर्से बाद देखें होंगे
ऐसे पुष्प-विमान विनास के
आसमान में टंगा विध्वंश
तुमने पहली बार देखा होगा
तुम्हें सुनाई देती है क्या जीवन-राग ?
मुड़ता दिखाई देता है क्या आदमी ?
मेरी साथिन ! तुम भली-भांति देख लो,
कहीं मौत नजदीक तो नहीं आ रही है
इस सृष्टि के ।
मुझे तो अब छाछ से भी डर लगने लगा है
बताओ तुम क्या सोचती हो ?
क्या देखती हो ?
क्या सुनती हो ?
***
अनुवाद : नीरज दइया
जन्म : 17 नवम्बर, 1948 लक्ष्मणगढ़
(सीकर)। शिक्षा : एम.ए. (अर्थशास्त्र), एल-एल.बी.। राजस्थानी
के प्रख्यात लेखक। चर्चित पुस्तकें- ‘हेली म्हारी’ (कविता संग्रह), ‘किली-किली कटको’, ‘राई-राई रेत’ (कहानी संग्रह), ‘मिनख रा खोज’, ‘अबोली’, ‘बुरीगार निजर’ (उपन्यास), ‘माटी सं मजाक’, ‘तारां छाई रात’ (निबंध) आदि। सभी विधाओं में विपुल मात्रा में लेखन। अनेक पुस्तकें संपादन,
साहित्य इतिहास-ग्रंथ, शब्दकोष, व्याकरण आदि की प्रकाशित-पुरस्कृत। स्थाई संपर्क- 3/343
मालवीय नगर,
जयपुर (राजस्थान)
Subscribe to:
Posts (Atom)