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आईदान सिंह भाटी की कविताएं

कवि : आईदान सिंह भाटी  /  अनुवाद : नीरज दइया
कवि परिचय : आईदान सिंह भाटी का जन्म: 10 दिसम्बर 1952 नोख (जैसलमेर) में हुआ। शिक्षा : एम.ए. हिंदी (सौंदर्यशास्त्र) एवं पीएच.डी.। आपकी काव्य-कृतियां ‘हंसतोड़ा होठां रो सांच’ एवं ‘रात-कसूंबल’ बेहद चर्चित रही और ‘आंख हींयै रा हरियल सपना’ पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार तथा राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति सर्वोच्च पुरस्कार अर्पित किए गए। ‘खोल पांख नै खोल चिड़कली’ एवं ‘समकालीन साहित्य और आलोचना’ इन दिनों चर्चा में है। आपने गांधीजी की आत्मकथा के अतिरिक्त राईनोसोर्स की कृतियों का राजस्थानी अनुवाद तथा ‘जागती-जोत’ (मासिक) का संपादन भी किया। राजकीय महाविद्यालय के हिंदी विभाग से सेवानिवृति के उपरांत स्वत्रंत लेखन।
संपर्क : 8-बी/ 47,तिरुपति नगर , नांदडी, बनाड़ रोड़, जोधपुर (राजस्थान) 342015
हंसते हुए होठों का सच
हरेक हंसते हुए होठों में
हंसी नहीं होती
कई बार अनइच्छा के भी
            आदमी को रहना पड़ता है हर्षित
वर्षों से रंगी काली सड़क
सिर्फ चलने के ही काम नहीं आती
जब वह टूटती और फिर से बनती है
तुम नहीं जानते कितने हृदय पोषित होते हैं ?
सिर्फ चलते रहना ही नहीं
यह दूसरा मसला खास है,
हरेक होंठ हंसा नहीं करते
सावन-भादों की घटाओं में
कजरारी रेखाओं के आकर्षण में
तुम्हारी कलम, आंख के काजल की कौंपलें जीती हैं
लेकिन वह नहीं जानती कि
निरंतर पड़ते ये विकराल-अकाल
उन नखराले नैनों में
चिंता की छायाओं का काजल फेर देते हैं
जो दस वर्षीय बालिका से लेकर
अस्सी वर्ष के बुजुर्ग की आंखों में बस जाता है।
जानते हुए भी आदमी कई बार
जानवर की  जिंदगी जीता है
तुम नहीं जानते कि आदमी क्यों हंसता है?
परंतु उसकी समय-समय की हंसी एक-सी नहीं हुआ करती।
दबड़क-दबड़क बातों में घोड़े दौड़ता
हरखू जानता है यह बात
कि उसके जीवन की छकड़ा-गाड़ी
सदा ही चूंचाड़ करती चली है
फटी पगरखी, साफे की दुर्गत
चाल में गांठें बांधी अंगरखी
कभी इसका अहसास नहीं होने दिया
कि आदमी दोनों टंक खाता है।
परंतु अब पोत्र को चलना सिखाते वक्त
वह घिसटती जिंदगी की बातें नहीं
दड़बड़-दड़बड़ घोड़े दौड़ाता है
क्यों कि वह जानता है कि उसके विगत की बातें
कष्ट में कलपती कहानियां सुनने
उसका वह लड़का भी तैयार नहीं होता था
तो  फिर वह तीसरी पीढ़ी क्यों सुनेगी?
सागर की छाती को चीर
कलेजा निकालती
उसकी लहरों का सुख लेते
सोयूज अपोलो के साथ
कुदरत की ऊंचाइयों से होड लेती
यह हरखू की तीसरी पीढ़ी है।
युगों-युगों से सोए ज्वालामुखी कभी
अचानचक फूट जया करते हैं।
कभी यह भी सोचो
कि दांत निकाले भी जाते हैं
और कभी भिंचा भी करते हैं।
कौन जानता है कि कितने युगों से
फाटी-फटी व गहरे धसी आंखें
एक बेहतर जीवन  के लिए हाथ-पैर मारती हैं
पर वह बेहतर जीवन
कभी नहीं हुआ नसीब
पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों
गहरे धसी व फाटी-फटी आंखें
खोती जाती बेहतर जीवन का सपना
भरमाते सपनों के
मकड़-जालों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी उलझती जाती।
यह हरखू जानता है
कि कागजी घोड़े फगत बातों में ई दौड़ते हैं
और पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां
इन बातों की कहानियों में स्वाह हो जाती है-
लेकिन यह भवितव्य है
यह भवितव्य है बेटा। जो कभी अनदेखी नहीं रहता
हरखू की पीढ़ी के दर्शन का यह सच
चांद, तारों, धरती और सूर्य जैसा सत्य है,
धरती सूर्य के चारों तरफ घूमती है,
यह भवितव्य है।
ये डूबी-डूबी आंखें फटी की फटी रह जाती
यह भवितव्य है।
सर्द रातें- अगन के इर्द-गिर्द बातों के बवड़र
झौंपड़े में जगह नहीं, क्यों कि बच्चे सोए हैं।
यह भवितव्य है 
परंतु उसकी आंखें उस दिन आश्चर्य से फटी की फटी रही
जब जुगतिये ने लाठी को देखते हुए पूछा-
‘यह बात सच है क्या पिताजी-
भैंरो कहता था कि पानी में भी आग होती है?’
वे फटी-फटी आंखों से देखते बोले-
बुजुर्ग बातों में कहा करते थे बेटा-
कि समंदर के पानी में आग होती है।’
कौन जानता है किसे पता।

संसार की यह विशालकाय भूखी धरा
जब तंदूरे-की तारों तक पहुंचती है-
हे राजा बाबू भावी नहीं टलती है ।
ये सबद आकाश और धरती में घूमते हैं
बाड़े में मिट्टी थपथपाते
हरखू के हाथ यह बात जानते हैं
कि मिट्टी और रोटी कितनी करीबी है।
पर वह फटी-फटी आंखों
अनेक सुनहरे सपने संजोते सोचता है
सातों पीढ़ियों की सिसकियों के संग-
शायद अगले जीवन में
यह जानवर जैसी जिंदगी फिर ना मिले।’
खेतों के खलों में, गायों के चरवाहे
और बिना मालिकों के ऊंठों के झुंड
लूओं से सजे धोरे
पानी के इंतजार में डेरे
फटी-फटी आंखों से
सातों पीढ़ियों की सिसकियों के साथ
तंदूरी तारों के संग गाते हैं -
शायद यह जानवर जैसी जिंदगी निकल जाए।’
और मनुष्यों के सिर
उन अबोले मौन धारण किए चहेरों के
चरणों में झुक जाते हैं-
संभव है आने वाली पीढ़ियां सुधर जाए।
और वह तीसरी पीढ़ी
गुप-चुप सदा अंधेरे
ना मालूम क्या फुसफुसाता
भाग्योड़ी दीवारों को धीरे से कहता है-
‘लड़के बिगड़ गए, सेठ जी को सलाम नहीं करते।
चांद-तारों को छूने चले हैं
इनको मालूम ही नहीं कि आदमी का पेट कैसे पलता है।’
वे कहते हैं- ये अलग-अलग मसले हैं-
(कि आदमी पानी क्यों पीता है।)
परंतु चारों तरफ दो जूण रोटी के लिए भटकता हुआ
हरखू हंसते-हंसते कहता है-
‘लड़के ठीक कहते हैं
दिशाएं चार नहीं, चौसठ हुआ करती हैं
हां, यह बात अलहदा है
कि आदमी पानी क्यों पीया करता है
हर आदमी जीने को जिया करता है
परंतु हरेक होंठों का सच
हंसी नहीं हुआ करता है।

अनुवाद : नीरज दइया