Pages

गोरधनसिंह शेखावत की कविताएं


दादाजी कहते थे
दादाजी कहते थे-
थोड़ा रुको,
रुको बच्चों !
समय आयेगा
और उदित होगा
सोने का सूरज
इसी जंगल में
तब तक तुम
खड़े रहो- धैर्य के साथ ।

एक दिन
जंगल में
आंधी के बवंडर से
अंधेरे ने पंख फैला दिये
कुछ नहीं दिखता
और न ही मन में सजगता आई
चारों तरफ़ सुनाई दी
मनुष्यों की भयंकर आवाजें
तरह-तरह के मनुष्य
और तरह-तरह की बोलियां
फिर चिल्लाना
और लूट-खसोट
तलवार से काट रहा
एक मनुष्य
उन सभी को ।

बंदूकों की आवाजों से
कांपती रही रात
जगते रहे पशु-पक्षी
थर-थर्राते करते
सुबह का इतंजार
अजीब चित्र है यह
छिप गया पाहड़
ध्वस्त हो गए जंगल
टूट गया भ्रम
मनुष्यता के पहरेदारों का

दादाजी कहते थे-
थोड़ा रुको,
रुको बच्चों !
समय आयेगा
और उदित होगा
सोने का सूरज
इसी जंगल में
तब तक तुम
खड़े रहो- धैर्य के साथ ।
***

लौट जाना चाहिए मुझे
बस
आज से यहीं से ही
लौट जाना चाहिए मुझे वापस
क्यों कि
मेरी और मुंह उठाएं हैं
कई अपरिचित आकस्मिक दृश्य 

मैं सचेत था
बहुत सचेत
मैंने पोखर के किनारे बैठ कर
उसे सागर नहीं माना
अपनेपन को ओढ़कर
गिनता रहा-
वक्त के लम्बे-लम्बे कदम
लेकिन अचरज है
लौटी जब भी चेतना
सूख गया मेरे पैरों का खून
बिखर गए बातों के डूंगर
बालू रेत के उनमान

मैं स्वीकारता हूं
इन पैरों नपी धरती को
जो मेरे लिए हैं
अनजान पखेरू-सी
मैं संभालता हूं
धीरे-धीरे छीजती
आशाओं की दमक
और सहेजता हूं
इन अलिखित इतिहास की भूलें
आने वाली पीढ़ियों के लिए ।

मुझे मालूम है
बहुत मुश्किल है
वक्त के तीखे दांतों से
खुद को अलाहदा करना
बस आज से ही यहीं से ही
लौट जाना चाहिए मुझे वापस
क्यों कि
चारों और मुंह उठाएं हैं
कई अपरिचित आकस्मिक दृश्य !
***

क्या जबाब होगा ?
हां,
अब तक मैं महसूस करता रहा हूं कभी कभी
लेकिन इतना आगे निकल आया हूं
कि तुम्हारे गुस्से का
क्या जबाब दूं ?
खुद को पूछता अवश्य हूं-
कब तक मुरझाएगा
तपती धूप को सिर पर यूं झेल कर

फूलों की कोमलता-कठोरता का
क्या कोई फर्क पड़ता है वृक्षों को
कभी पतझड़ कभी बसंत !

जानता हूं
वह सरोवर कभी खींचता था मुझे
और मेरा इंतजार
खींचता था मुझे
वे सपने
अब एकदम पीछे छूट गए
ॠतुएं आती हैं
और सूनापन ओढ़े पत्थर पर
जहां खुदे हैं  
मेरे और तुम्हारे नाम
बार बार बांचती है ।

सोचता हूं-
इन दहकती सांसों की खुशबू से
गर्म मेरी हथेलियों की रग-रग
मुझे थामता है मेरा ही खून
चट्टान-सा कठोर बन कर
उस समय मैं भींच लेता हूं
मेरी दोनों मुट्ठियां
खुद के होने के
अहसास से ।
***

काला डूंगर
मैं कब
काले डूंगर के सामने
आकर खड़ा हो गया
मालूम ही नहीं

यह डूंगर
एकदम नंगा
न ही यहां वृक्ष
न ही हरियाली
मैं
मुड़ मुड़ कर पीछे देखता हूं
उगता-छिपता सूरज
चांदनी का महकना
घूप का चिलकना

इस काले
और ऊंचे डूंगर को
देखकर डर लगता है
यहां न तो चांद सूरज हैं
न ही वर्षा
न ही नदी-नाले
इसकी जड़ों में
खड़े हैं बहुत लिग
हारे-थके
धर मजलां धर कूचां चलते हुए

मुझे लगता है
जैसे कहता है बड़ा डूंगर
तुम्हारे इस मुकाम पर
धैर्य से पैर थमाना
तुम्हारी यात्रा का
यह आखिरी मुकाम है ।
***

डूंगर पर
सुनता रहा
इस डूंगर की गाथा
अनकही बातें
और सोचता रहा
तीखे सवालों के जबाब

सवाल
जो बहते
मेरी रग-रग में
रक्त की नदी बन कर
जो धाहड़ते
तोप के गोले के उनमान

आज मैं
डूंगर पर हूं
जमीन से ऊंचा
थोड़ा ऊंचा
धरती पर बहता है
गंदा पानी
तो यहां बहती है-
निर्मल धारा

यहां का चित्र
जमीन से एकदम अलग है
अच्छा और मनमोहक
डूंगर गूंजता है
नदी की कल-कल से
मुस्कुराते हैं-
वृक्षों के पत्ते-फूल ।

उजास के छींटों से
आच्छादित है डूंगर का सीना
पत्थर-पत्थर में
पहचाने जाते हैं अनेक चेहरे
फैलते हैं घाटियों में
इतिहास के नए संदर्भ के आखर

डूंगर की गोद में
चमकता है
जीवन-जिंदगी का अपनापन
रीतता है कठिन बातों का दर्द
चारों तरफ फैलती है
एकांत दुनिया की शांति

यहां नहीं है तोप
न ही है रक्त की नदी
है मेरे करीब
एक अपठित
पर्याप्त डूंगर !
***

अनुवाद : नीरज दइया

कवि गोरधनसिंह शेखावत (1943) राजस्थानी नई कविता की पहल पत्रिका राजस्थानी : एक के पांच कवियों में से एक हैं । किरकिर, पनजी मारू और खुद सूं खुद री बातां नामक कविता संग्रह प्रकाशित व चर्चित । आप राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर की मासिक पत्रिका जागती जोत के संपादक भी रहें हैं ।

प्रेमजी प्रेम की कविताएं


चित्र
हर किसी की
क्या मजाल
जो पढ़ ले
गा ले ।

संस्कार और सीख
जिसे मिलें होतें हैं
वे ही पढ़ सकते हैं-
मेरे बोल
गा सकते हैं मेरे अक्षर

इबारत बांचने से पहले
संस्कार से जुड़ो ।
फड पर मंडा
एक चित्र हूं मैं ।
***

बांसुरी
बोल बांसुरी बोल
तुम्हारे बोलने से ही
लोग जानते हैं
पहचानते हैं
कि मैं कौन हूं !

मेरे मरणोपरांत भी
इसी तरह बोलती रहना
उतारती रहना
लोगों के मनों में
मेरी बात ।

लोगों का तो स्वभाव है-
भूलना ।

वे भूल नहीं जाए मेरी बात
तुम बोलती रहना
युगों युगान्तर तक
जिस से कि सभी लोग जान जाए
कि किसी के मरने से
मरती नहीं बात ।

जान जाए-
कि ब्रह्म हैं शब्द !
***

आंधी
आने वाली है एक आंधी
सावधान !
हो करचेत
करें मजबूत घोसलों की पकड़
पेडों के हिलने की सोचें

जब-जब भी आई है आंधी
पेडों का कुछ नहीं बिगड़ा
बार-बार आती है आंधी
उसका बैर है घोसलों से
पेड तो वे ही उख़डते है
जिनकी होती है पकड़ ढीली

पेड़ों और घोसलों की बात छोड़े
असली बात तो है-
मजबूत पकड़ की
जिसकी ढीली है पकड़
वह टूटेगा ही ।
***

पाप
पाप करना पाप नहीं
पाप की बात करना पाप है

पाप करने वाले नहीं डरते
पाप की बात करने वाले
डरते हैं !

मत डरिए,
चाहे जितना पाप करें
आप उतना पाप करें
जितना कि किसी का
बाप भी ना कर सके ।

बस, बात ना करें
बातें करना पाप है
सबसे बड़ा पाप ।
***

यात्री
मैं ओर तू
सुपर डीलक्स मोटर के
यात्री जैसे
दिन निकलते ही
पीछे-पीछे भाग रहे हैं
तेरी खिड़की से तू
मेरी खिड़ाकी से मैं
झांक रहे हैं बाहर ।

सुबह
मेरी खिडकी से
ललाई लिए
ऊपर आया था सूरज
अब तुम्हारी खिडकी में
हार-थक कर
उतर रहा है नीचे ।

आ मित्र , आ
सूरज का चढना-उतरना
देखना छोड़, जरा बतियाएं ।

बता, तू कौन है ?
कहां जा रहा है ?
कहां से आया है ?
सांझ का समय हो चला है
मौन तोड़े ।

लेकिन, पहले तू बोल ।
बोलने से ही पता चलेगा
सुपर-डिलक्स बस में
सुपर तू है या फिर मैं
जल्दी से बोल
उजाला कम होता जा रहा है।
***

झुका- झुका सिर
झंडा झुका
मेरा सिर झुक गया ।
हरे राम
बेचारा अच्छा था।
झंडा
तीन-सात-बारह दिन झुका रहा
फिर वापस
ऊंचा हो गया।
मेरा सिर फ़िर झुक गया
घणी-खम्मा,
पधारो,
आपके आने से
बिगड़े
काम बनेंगे
अब तक
बेईमानी थी
भ्रष्टाचार था
चोरी थी
भाई-भतीजा था
अब सुधर जाएगी
देश की हालत
पधारो।

मेरा मन
आज तक नहीं समझा
कि मेरा सिर
झंडे के उतरने
और
चढ़ने पर
झुकता क्यों है ?
***

यात्रा-1
यात्रा का मार्ग
जब-जब भी पूछा
लोगों ने बताया-
अलग-अलग ।
मैं, बिना बताएं ही
इस मजिल तक
आ पहुंचा हूं ।
***

यात्रा-2
भावनाओं को
अर्थ देना, बताना
अर्थ को अक्षर देना
माला फेरना
अक्षर-अक्षर की
फिए चुप-चाप
भीतर ही भीतर चलना ।

यह कैसी यात्रा है ?
तू सोचता है-
मै चल रहा हूं
भाग रहा हूं
जमाने से भी आगे ।

चन्द्रमा कितना ही भागे
धरती से उसका गठबधंन
नहीं टूट सकता…

यह कैसी यात्रा है ?
***

अनुवाद : नीरज दइया


प्रेमजी प्रेम राजस्थानी के वरिष्ठ कवि-गीतकार रहे हैं । मंच की शोभा रहे प्रेमजी प्रेम को म्हारी कविता के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया । राजस्थानी में प्रेमजी प्रेम हाड़ौती अंचल के पर्याय रहें और हाड़ौती बोली की महक से समग्र राजस्थानी कविता में अपनी अविस्मरणीय छवि स्थापित कर कम उम्र में संसार को विदा कह गए ।

श्यासुंदर भारती की कविताएं

खिलौनों की दुकान पर बच्चा
रोते बच्चे को
गोद में लिए
वह खिलौनों की दुकान में घुसा

अ ले ले
लो मत
यह देथ हाथी
यह घोड़ा
यह बंदर…
……अ ले ले लो मत ।

उसने बच्चे को
नीचे उतार दिया
बच्चा कदम-कदम बढ़ाता चला
इतने खिलौनों में
बच्चे को एक चीज पसंद आई
उसने जाकर सीधे बंदूक उठाई ।
***

फर्क
दुकानदार
आज भी उधार तोलता है
बेचारा कुछ नहीं बोलता है
उधार ही कितना
फर्क सिर्फ इतना
कि सौदा लेने
पहले बापू जाता था
अब बेटी जाती है ।
***

शर्म
उस दिन
तोलते वक्त
जब दुकानदार ने
मेरी नजरें बचा कर
तराजू के डंडी मारी ।

मेरे मित्र !
जब-
मेरे मुंह पर नहीं
मेरे पीछे
मेरी बुराई बखानी ।

और उस दिन
रिशवत लेने की खातिर
जब उस ने
हाथ लम्बा किया
टेबल के नीचे से
उस वक्त
लगा मुझे कि
लोगों की आंखों में
अभी शर्म बाकी है ।
***

अनुवाद : नीरज दइया


कवि श्यामसुंदर भारती राजस्थानी के समर्थ कवि है जिनकी छंद के साथ नितांत आधुनिक और उत्तर आधुनिक काव्य की मर्मज्ञया "मुजरो करै आकास" नामक राजस्थानी कविता संग्रह से पहचानी जा सकती है । 

भरत ओला की कविताएं

आदमियों के आंकड़े
जब मेरे दादा गुजरे
अर्थी के पीछे
सैंकड़ों आदमी थे ।

बापू गुजरे
जब बीसेक ।

हो सकता है
जब मैं मरूंगा
चार ही नहीं हो ।

अब आप ही बताएं
आदमी घटे या बढ़े ?
***

कविता
उनकी नजरों में
कविता लिखना फैशन है
तभी तो पड़ौसी गिरजा
लिख-लिख कर कविताएं
उड़ा देता है जैसे- पतंग
मैंने कितनी ही बार
लिखनी चाही कविता
पर लिखी नहीं गई ।
आज
जब कव्वै ने
ऊंट की टाटर पर
मारी चोंच
तो न मालूम
कहां से आ कर
पसर गई
कविता
टाटर पर !
***

अनुवाद : नीरज दइया

(साहित्य अकादेमी से सम्मानित डॉ भरत ओला मूलतः गद्यकार हैं, किंतु राजस्थानी में कुछ कविताएं भी लिखी है । हिंदी में आपका एक कविता संग्रह तथा राजस्थानी में दो कहानी संग्रह व एक उपन्यास प्रकाशित हुए हैं ।  )

कृष्ण वृहस्पति की कविताएं

गूंगे आदमी
उनके पास जोर था
मेरे पास कलम थी
वे जोर लगा कर थक गए
मैं लिखने से नहीं रूका ।

मेरे पास खेत थे
उनके पास लठैत
मैंने खेतों में आदमी उगाए
वे उगे तो उन्होंने
सरकारी लगान के नाम पर
उनकी काट ली जुबानें !

मेरे वे गूंगे आदमी
बिके नहीं फिर
बाजार में टके सेर ही ।

अनुवाद : नीरज दइया

(भाई कृष्ण वृहस्पति को मैं राजस्थानी में मेरे समकालीन कवियों में सर्वाधिक पसंद करता हूं । वे अपना पहला राजस्थानी कविता संग्रह इसी वर्ष प्रकाशित करेंगे, ऐसा मेरे कवि-मित्र का कहना है ।) 

जुगल परिहार की कविताएं

 राजस्थानी कविता
जुगल परिहार
25 अप्रेल, 1954 को जन्म। राजस्थानी और हिंदी में 1973 से लगातार लेखन और प्रकाशन। अब तक विविध विधाओं में अनगिनत रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। सन् 1980 से पत्रकारिता से जुड़ाव। राजस्थानी पारिवारिक मासिक ‘माणक’ के सहायक संपादक के रूप में 35 वर्षों से संपादन-कार्य तथा ‘दैनिक जलतेदीप, जोधपुर’ से भी विगत 15 साल से उपसंपादक के रूप में सम्बद्ध। नीतिपरक कथात्मक स्तंभ ‘दसवां वेद’ की लगभग छह हजार से अधिक किश्तें ‘दैनिक जलतेदीप’ में प्रकाशित। अनेक पुरस्कार एवं मान-सम्मान। पता- 17/195, चौपासनी हाउसिंग बोर्ड, जोधपुर (मोबाईल 9251964112)

दुख क्यों होता है?

बुझने का इतना गम नहीं
जितना कि है गम
इस तरह जलने का!
जो कि जलने वाले हैं
उन सब को
समय आने पर
एक ना एक दिन
बुझना तो है निश्चित
फर्क बुझने में नहीं है
फर्क है तो फकत जलने में
यही कारण है कि
हृदय में हरदम
महसूस होता है-
यह इस तरह क्यों हुआ?

कितना सार्थक है
एक दीप का जलना!
रात-भर
एक सहज गति से
होले-होले
जलता रहता है
क्षण-क्षण तेल खूटता
पर जरा-जरा-सी
बाटी भी जलती
पर तिल-तिल कर...

सरुआत में
कितनी तेजी होती है-
उस के जलने में
कितनी जवान होती है-
उसकी लौ
उसकी आंच
उसकी रोशनी!
निकटता से
जैसे भस्म हो जाएंगे
पर समय के साथ
अवस्था के हिसाब से
धीमी-धीमी
वही लौ
वही आंच
वही रोशनी
कम होती जाती है

और पहुंचती एक अंतराल के बाद
वही उसी दशा में
जो कि होती है
बुझने के समय-सी!
उस समय बाट
चड़-चड़ कर के
जैसे उसकी घोषणा करती
यही वजह है कि
बुझने की वेला एकाएक
नहीं महसूस होता घोर अंधकार!

पर जलना यकायक
भभकै के साथ-
हफड़-हफड़
और बुझ जाना
क्षण भर में
-कितना नागवारा होता है!

एक हफड़का
और उसके बाद
चारों तरफ
अंधेरा ही अंधेरा!
बहुत देर तक
उस अथाह समंदर में
गोते लगाती दृष्टि
किसी सहारे की बाट देखती!

दुख क्यों होता है?
जो कि बरसों से
मेरे हृदय के
भीतर-ही-भीतर
गहराता रहा है
मेरी जिंदागी में
आज तलक
कितने ही ऐसे चांस आए
जब कि मैं
इस सवाल का जवाब
सिर्फ मौन के
कुछ नहीं दे सका
पर आज-
जब कि मेरे ये आंखें
दूर-दूर तक गहराए
उस अंधियारे में
कुछ देखने योग्य हुई है
-मुझे लगता है कि
मेरे पास एक जबाब है!
अब नहीं उगते कैक्टस में हाथ
बचपन में मना करती थी
कहा करती थी माँ -
‘मत मार बहन को
पाप लगेगा रे, पाप
देख, वह देख
वो काँटों वाला कैक्टस
उगा करते हैं उस में
पापी हाथ’
बच्चे डरते थे तब
लेकिन अब?
अब तो डरता नहीं कोई भी
हाँ, उगते थे कभी,
लेकिन अब नहीं
उगते कैक्टस में हाथ....

अनुवाद: नीरज दइया