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रामेश्वर दयाल श्रीमाली की कविताएं


तुम नहीं सुन्दर
नहीं
तुम नही सुन्दर
सुन्दर तो है मेरी दृष्टि
लेकिन वह
बिना तुम्हारे
उपजती नहीं ।

नहीं
तुम नहीं सुन्दर
तुम तो केवल
आईना हो
फूल जैसा तो है
खिला खिला
मन मेरा ।

नहीं
तुम नहीं पद्म-गंध
यह जो बिखरी है-
सुवास है मेरे मन की
तुम तो हो फ़कत हवा
लेकिन तुम्हारे बिना
चौफेर नहीं फैलती
मेरी मधुर सुगंध !

नहीं
तुम नहीं रंगीन
रंगों से सना है मेरा मन
तुम तो हो सिर्फ़ जल
लेकिन तुमहारे बिना
रंग ठहरता ही नही ।

तुम नही सुन्दर
तुम नही पद्म-गध
तुम नही रंगीन
लेकिन तुम बिन-
रूप कहां ?
गंध कहां ?
रंग कहां ?
***

गांधारी है मेरा युग
गांधारी है मेरा युग
आंखों पर बांधकर पट्टी
पालता है- सत !

है सुंदर समागम -
सत के साथ
आंखों की पट्टी का !

कितना सुंदर है-
गांधारी का यह सत
जो निभ जाता है
बांध कर आंखों पर पट्टी ।
सत ठहरा बस तब तक
जब तक थी आंखों पर पट्टी !

बांध कर आंखों पर पट्टी
चाहे कुछ भी कीजिए
जान-बूझ कर या अनजाने में
मनचाहा अपना
कुछ फ़र्क नहीं पड़ेगा ।

कोई टोके तो
झट से जबाब देना-
मुझे तो कुछ दिखाई नहीं देता !
गांधारी है मेरा युग !
हाथ पकड़ प्रत्यक्ष का
दिखाने पर भी
दिखता नहीं वह
मेरे इस युग को !

गांधारी है मेरा युग
जबरदस्त है पट्टी का प्रताप
दिखाई नहीं देता इसे कुछ भी
सत और असत का भेद
न्याय और अन्याय की सीमाएं
गरीबी और अमीरी का अंतर
कुछ भी नहीं दिखता !

नहीं दिखता इसे-
अत्याचार !
भ्रष्टाचार !
बिगड़े हालात !

अब बांध ली
आंखों पर पट्टी
मेरे देश के शासकों ने
और देश की जनता ने !
बांध कर पट्टी आंखों पर
किया जा सकता है-
मझ-दौपहर अंधेरा !

ऐसा महिमा-मंडित महान
सत है आप का !
***

फड़फड़ाना
तुम्हारे लोह-पिंजर में
मैं तो सिर्फ फड़फड़ाया था
तुम ने तो उसी को समझ लिया
बगावत   
और काट ली मेरी गर्दन !

यह तो अच्छा हुआ
जो मौत की गंध जानता है
वह नहीं फसेगा
अब तुम्हारे पिंजरों में !

काट लो गर्दन
खुशी से काटो
शांति है मेरे मन को
गदर्न के कट जाने से !
कारण ?
बंद नहीं होगा
पिंजरों में पंछियों का फड़फड़ाना
जब तक मिट नहीं जाती
पिंजरों में फांसने की यह परंपरा !
***

सर्प और मनुष्य
सर्प
देखते ही मनुष्य को
नहीं डसता
लेकिन मनुष्य
सर्प को देखते ही मारता है
मनुष्य के सब काम
समझ से परे के हैं !

सच है
सर्प तो
जहर से भरा है
लेकिन, सच पूछो तो-
मनुष्य में जहर कौनसा थोड़ा है ?

बे-कसूरों को मार-मार
अपने प्राणों की पूरी सुरक्षा
अपनी देही के पूरे जतन
मनुष्य तुम्हारी
यह सभ्यता
यह संस्कृति
धन्य-धन्य !
***



अनुवाद : नीरज दइया

राजस्थानी के आधुनिक कवि-कहानीकार के रूप में चर्चित रहे श्री रामेश्वर दयाल श्रीमाली (5 अप्रैल, 1938 29 मार्च, 2010) को कविता संग्रह म्हारौ गांव पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया । चर्चित कविता संग्रह- कुचमादी आखर व गुनहगार है गजल आदि ।

श्याम महर्षि की कविताएं

कविता : एक
कविता
गोली नहीं है नीद की…
नहीं है वह
गोली बंदूक की !

कविता तो
मेरे मन की खुराक है
कदमों का पड़ाव है
मेरी कविता !

कौन जाने यह पड़ाव
मेरी जिंदगानी के
पूर्ण-विराम से
कुछ अलग-थलग है ।

वहां तक पहुंचने के लिए
मुझे करने पड़ते हैं सवाल
जिनका जबाब
इस दुनिया को देना है ।
***

कविता : दो
कविता आग नहीं है
जिस से लोग
सेक सकें रोटी
और नहीं है वह कोई वस्त्र
कि जिस से
किसी का नंगापन ढक जाए
कविता औरतों के गीत भी नहीं
जो कि गली गली में गाए जा सके ।

कविता मेरे भीतर के
आदमी की जुबान है
और है मेरे मन की पुकार
कविता अब करायेगी पहचान
भूख और रोटी की
कविता तो बस छाया है कवि की ।
***

संगत
घर का पालतू कुता
चाटते-चटते मेरा हाथ
लगा है अब गुर्राने
उसकी संगत कुत्तों के साथ कम
और हो गई है अब
आदमियों के साथ अधिक

कुत्ता हो गया है सयाना
वह काटने की जगह
लगा है आजकल गुर्राने
शायद वह जान गया है-
डराने के लिए जरूरी नहीं काटना ।
***

वह
वह कल तक
चेजे पर जाता था
और बन रही हवेलियों के नीचे
सो जाता हो कर बेफिक्र

वह करने जाता था मजदूरी
किसी मिल में
पर सोता था अपनी नींद
या फिर जागता अपनी नींद

आज वही खड़ा था
मेरे सामने ताने मुट्ठियां
कारण मैंने लिखी थी
एक कविता उस के लिए

उस ने पढ़ी मेरी कविता
और आ पहुंचा लड़ने
तान कर अपनी मुट्ठियां
जो कल तक नहीं जानता था
नित्य नई बन रही हवेलियों
और मिलों की ऊंची होती
चिमनियों के रहस्य

कल तक वह
शायद जानता नहीं था
अपने के पसीने की कीमत
वर्ना कब का वह आ चुका होता
मेरे सामने
खुली सड़क पर
तान कर मुट्ठी

वह कविता से अधिक मुझे
और मुझ से अधिक कविता को
गहरे तक जानता है !
***

न्याय
कव्वै को कव्वा
सारस को सारस ही रहने दीजिए
चाहे किसी का प्रियतम आए
महलों में या फिर किसी का बीर
पधारे घर को ।

इन पर होना क्रोधित
या जाहिर करना खुशी
दोनों ही बातों का अर्थ
उन्हें मालूम नहीं ।

बिल्ली का रास्ता काटना
गधे का किसी दिशा में चलना
सुगन-पक्षी का कुछ बोलना
कोई सुगन नहीं है
ऐसा मानना कहां है न्याय-संगत ?

इस धरती के
और धरती पर बिखरी
पूरी प्रकृति के
है मालिकाना हक
क्या सिर्फ मनुष्यों के ही ?
नहीं, यह सब हमारा नहीं
इनका और उनका, है सभी का ।
***

विरासत
गिरवी पड़ा है खेत
झूमर सेठ का रुक्का
बहन मालती के पीले-हाथ
करने हैं शेष
पड़ोस से मुकदमा
और अनगिनत
आडी-टेडी जिम्मेदारियां
सौंप गए हैं मेरे बाबा ।

याद आती है
बचपन की
वे दिन जब इसी आंगन में
होता था खेलना-कूदना और खिलखिलाना ।

बाबा का अपरिमित स्नेह
और बड़ी मां का दुलार
जो मिला इस आंगन में
कब भूला हूं मैं !

अब इस घर में
कहीं दब गई हैं-
गाय-बछड़ों की आवाजें
सुनता हूं मैं
मिल का बेसुरा भोंपू ।
दूध-दही और घी
शौक बन चुके है-
दिल्ली की बड़ी बस्ती के
और मेरे लिए सपना ।

मोहन बाबा के हुक्के की गुड़गुड़ाहट
और रुघे काका से बतियाना उनका
अब कहां सुन सकूंगा इस घर में
जहां सुनाई देती है अब स्टोव की सूंसाट
बाजरे की रोटी की सुगंध
छीन ली किसी ने आंगन से ।

पुस्तैनी घर यह मेरा
बहुत सालों से जो था अपना
बिना उन के लगता है-
बहुत ही पराया ।
***   

अनुवाद : नीरज दइया


कवि श्याम महर्षि (7 अटूबर, 1943) राजस्थानी साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका राजस्थाली के संपादक के रूप में विख्यात हैं साथ ही आप गत पचास वर्षों से सक्रिय राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़ (बीकानेर) के आधार स्तंभ रहे हैं । अनेक लेखकों-कवियों को तैयार करने में आपकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है वहीं आप के राजस्थानी हिंदी में अनेक मौलिक कविता संग्रह, संपादित संग्रह तथा अनुवाद-ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं । अनेक पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित । राजस्थानी के चर्चित काव्य संग्रह- उकळती ओकळ, साच तो है, मेह सूं पैल्या और सोनल रेत रो समंदर हैं ।