आशा
अकाल में
रोती-बिलखती धरा
बीजों का क्या करे ?
बेचारे बीज डरते हैं
अग्नि-मग्न धरा से ।
कोई छिटक ना दे
टूटती आशा
फिर से स्थापना की ।
मालिक को डर
बीज और धरा के
पुराने संबंध ना टूटे ।
अभी डर ही शेष है
धरा पर
जो लौटाता है
जीने की आशा ।
हे विधना !
आशा रखना
आशा ही रखेगी
मानव में मनवता ।
***
कविता
कविता
ना तो लिखी जाती है और
ना ही पढ़ी जाती है ।
कविता तो इधर-उधर
बिखरी हुई कठिनाइयों के अंगारो को
अपने अंतस में बीन कर
बुझाने की क्रिया है
और इस में आग लगने की संभावना अधिक है
बचने की बजाय ।
इसी क्रिया की पुनरावर्ती
अपने भीतर ही भीतर
महसूस करने की कला होती है
कविता को पढ़ना ।
इस दौर में
कविता पढ़ना और लिखना
किसी युद्ध से शायद ही कमतर हो
कौन है
जिसके भीतर
इस युद्ध को जीतने का दम है ।
***
पेड़
आप ने
पेड़
एक अभियान में
पेड़ लगाया
दूसरे में सींचा
और
तीसरे में
काट डाला ।
ठीक है
आप मालिक थे, पेड़ के
लेकिन जबाब देना ही पड़ेगा
जिस ने पेड़ को जमाया
जो पत्ते फूटने से लेकर
पेड़ काटने तक
मौन थी
वह धरती
उस पेड़ की कौन थी ?
***
आदमी में
आदमी जब इकट्ठे होते हैं
आदमी से घात करते हैं
बिजली के
तारों पर बैठी
चिड़िया ने चिड़िया से
बातें की
आदमजात में ही हुए हैं-
ढोला और मरवण…
उनकी बातें तो छोड़िए
अब तो
आदमी में ही
आदमी
कब होता है
लेकिन …?
***
अनुवाद : नीरज दइया
ओम पुरोहित ‘कागद’ का जन्म 5 जुलाई, 1957 को हुआ । राजस्थानी और हिंदी में अनेक कविता संग्रह प्रकाशित । राजस्थानी कविता संग्रह ‘बात तो ही’ के लिए राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर के अलावा कई सम्मान व पुरस्कार प्राप्त । इन दिनों आपका नवीनतम काव्य संग्रह “आंख भर चितराम” चर्चित है ।
समकालीन भारतीय साहित्य : अंक 165 जनवरी-फरवरी 2013 में ख्यातनाम कवि श्री ओम पुरोहित "कागद" की कविता का हिंदी अनुवाद।
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