अथाह मेह बाद
दूर आकाश में
ऊंट-घोड़ै-से
खड़े है बादल
जैसे टंगी हो-
पाबू जी की पड़
और आगै खड़ै है
ऊंचे-ऊंचे दरखत
जैसे- भोपा-भोपी
उसे बांच रहे।
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औरतें
इतनी भाग-दौड़ में भी
याद रख लेती है वे
गीत
जमाने का इतना जहर
पी कर भी वे
उबार लाती हैं
कंठों में
इतना मिठास
सीधी-सादी औरतें।
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सौरम की बात
बात-बेशक
रोटी की सौरम की कीजिए
परंतु पहली पहली बिरखा की
उस सौरम को क्यों भूलते हो
जिस से ही
आस जगती
रोटी की।
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कुदरत के सामने
पाड़ोसी गिरा देता है
गली में थोड़ा-बहुत पानी
तो हम उतर आते हैं-
मारने-मरने को
पर मेह के पानी को तो
जूतियां खोल कर
लांघ जाते है!
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युग धर्म
बाते करते हो
युग धर्म की
पर कब था
पूरा सतजुग ?
और अब कहां है ?
सौ प्रतिशत कलयुग
झूठ-सच की लड़ाई तो
धुर से चालती आई है
और चलती ही रहेगी।
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सग्गा
वे कहने को
‘सग्गा’ तो अवश्य कहे जाते हैं
पर जरा भी नहीं समझते
सग्गै का संकट!
छुछक, भात,
ओढावणी और दहेज
लेते समय
कभी भी नहीं सोचते
कि सग्गा
डूब तो नहीं गया है
कर्ज जे कीचड़ में!
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धुंध के बाद सूरज
पूरी सर्दी
धुंध ही धुंध
मन बहुत दुखी रहा
पर इतना संतोष भी हुआ
कि तरसना नहीं पड़ा
धूप में बैठने के लिए।
दस दिनों की
धुंध के बाद
आज आप निकले हैं
तो लागा है-
बसंत
आ गया है।
***
अनुवाद : नीरज दइया