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मधु आचार्य ‘आशावादी’ की कविताएं

बीकानेर में विश्व रंगमंच दिवस, 1960 में जन्में मधु आचार्य ‘आशावादी’ 1990 से राजस्थानी और हिंदी में विविध विधाओं में सृजनरत हैं। रंगमंच और पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष पहचान। राजस्थानी में उपन्यास ‘गवाड़’ व ‘अवधूत’ के लिए चर्चित आशावादी के कहानी संग्रह ‘उग्यो चांद ढळियो जद सूरज’ के साथ नाटक ‘अंतस उजास’ भी पर्याप्त चर्चा में रहे। राजस्थानी कविता संग्रह ‘अमर उडीक’ के अतिरिक्त शिक्षा विभाग राजस्थान के शिक्षक-कर्मचारियों की रचनाओं का संपादन ‘सबद साख’ प्रकाशित। हिंदी में आपकी अब तक विविध विधाओं में एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित है। राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी द्वारा ‘मुरलीधर व्यास राजस्थानी कथा पुरस्कार’ के अतिरिक्त अनेक मान-सम्मान और पुरस्कार आपको मिले हैं। साहित्य अकादेमी नई दिल्ली की राजस्थानी भाषा परामर्श मंडल के सदस्य और संप्रति- बीकानेर ‘दैनिक भास्कर’ के कार्यकारी संपादक।    
अकाल है 
मनुष्यों में
मनुष्यता का
रिस्तों में
विश्वास का
शब्दों में
संवेदना का
राज्य में
राम का
नेता में
काम का
सच कहता हूं-
अकाल है ।
००००

अकाल नेह का 
उससे था
नेह का रिस्ता
शत प्रतिशत सच्चा
किंतु बात-बात पर देनी
होती थी सफाई
इससे रिस्ते में
बड़ी भारी आंच आई
जैसे नेह में मिल गई हो रेत
मिलती जा रही हो रेत
फिर कैसे जिंदा रह सकता है-
रिस्तों में प्रेम
आज के इस युग में
रिस्तों में गिर चुकी है रेत
जीवन में आ बैठा है-
नेह का अकाल।
००००

परिवर्तन  
जब तक
गांव में घर थे कच्चे
गोबर और गारे से सने
तब तक थे उनमें
मनुष्य पक्के
एकदम सच्चे
विश्वास योग्य

समय बदला
घर बने पक्के
वहां मार्बल और टाइल्स लगी
टीवी के लिए छतरियां टंगी
घरों के सामने कारें हुई खड़ी
अब घर तो हो गए पक्के
किंतु मनुष्य हो गए कच्चे....

घर कच्चे तो मनुष्य पक्के
घर पक्के तो मनुष्य कच्चे !
००००

होश करो !
यदि नहीं चाहता हो बदलना
तो इंकलाब के रास्ते पर
तुझे चलना होगा
आने वाली पीढ़ियों की खातिर
लड़ना होगा
होश करो  लोगो, होश !
यदि अब भी नहीं आया होश
तो साफ सुन लिजिए-
इस दुनिया में
मेरे भाई तुम्हें
और आने वाली हमारी पीढ़ियों को
बेमौत करना होगा।
००००

सुनता कौन है ? 
सुना था
कहते हैं लोग अब भी-
दीवारों के भी कान होते हैं
इसलिए बेहतर है
हर समय सोच-समझ कर बोलना ।

पिछले काफी वर्षों से
राजधानी में जनता
चिल्लाकर
मंहगाई-मंहगाई कर रही है
किसान रो रहे हैं-
अपनी फसलों की खातिर....

सत्ता-पक्ष सब देखता
और सुनता भी है
करता वह केवल बस तेरी-मेरी।
कान तो उनके हैं ही
फिर वे सुनते क्यों नहीं !
शोर कर
जबरदस्ती उनको
सुनानी पड़ती है - आम बातें


दीवारें तो सुन लेती हैं
गुप-चुप्प पर्दों में हुई बातें
फिर मनुष्य किसे मानें
दीवारों को
या सत्ता पक्षकारों को !
००००
अनुवाद : नीरज दइया