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राजेश कुमार व्यास की कविताएं

हिंदी दिवस, 1973 को बीकानेर में जन्मे डॉ. राजेश कुमार व्यास युवा कवि आलोचक के रूप में विख्यात हैं। एन.बी.टी. से “कश्मीर से कन्याकुमारी” यात्रा-संस्मरण प्रकाशित। इन दिनों आपका राजस्थानी कविता संग्रह “कविता देवै दीठ” चर्चा में है। आपकी हिंदी कविताओं का संग्रह भी प्रकाशित हुआ है, साथ ही अन्य विधाओं में विविध रचनाएं निरंतर प्रकाशित। संप्रति- राजस्थान सरकार के सूचना और जनसंपर्क विभाग में सहायक निदेशक पद पर सेवारत।

दृष्टि देती है कविता
अकाल सुनाता है-
अनहद नाद,
कवि तुम भी गाओ-
गीत मनों के।
अलग-अलग है-
सबका अपना-अपना आकाश
पर धरती सभी की एक !
हे मनुष्य !
मत भूल मनुष्यता
कविता देती है-
दृष्टि।
००००

कविता है हथिहार
इससे पहले
कि सूख जाए
सभी हरियल वृक्ष
आकाश से
बरसने लगे अंगारे
तारों की छांह में जाकर
सुसताने लगे सूरज
उजियारा करने लगे प्रयास
अंधेरे में छुप जाने के
इससे पहले कि
दौड़ने लगे
उम्मीदें और आशाएं
सूख जाए आंखों से पानी
आओ !
इस भरोसे के बल रचें कविता
अंत में कविता ही है
अनहोनी में आयुध।
००००

जीवन
जब जगता हूं
तब हो जाता है उजाला
जीवन है- उजाला।

जब होता है अंधेरा
तब आ जाती है नींद
मृत्य है- निद्रा।

जब लिखता हूं
तब हो जाता हूं आकाश
मन है- आकाश।

जब सोता हूं
तब आते हैं स्वपन
आकाश है- सपनें।

जब मंदिर जाता हूं
तब प्रार्थना करता हूं
पछतावा है- प्रार्थना।

जब नहीं हल होती समस्याएं
तब आता है क्रोध
अंतस का भय है- क्रोध।

उजाला, निंद्रा, आकाश,
स्वपन, प्रार्थना, क्रोध-
इन सब को कर के एकत्र
जीता हूं- यह जीवन !
००००

चाय पीते हुए मां
जब पास नहीं होती मां
रहती है वह
आंखों में हमारी।
छुट्टी के दिन
धूप चढ़ने तक
नहीं उठती बहू
कुछ फर्क नहीं पड़ता
मां के
वह उठ जाती है अल-सवेरे
लेकिन नहीं छोड़ती बिछौना
डरती है कि कहीं आवाज ना हो कोई
चाय पीने की तलब होते हुए भी
नहीं जगाती बहू को।
चुप-चाप प्रतीक्षारत
घड़ी में तलाशती
बहू के सवेरे को 
और बहू भीतर संकुचाती
जब उठती है, कहती है-
“आज देर हो गई
आपको चाय नहीं दे सकी,
अभी लाती हूं...”
चाय पीते हुए मां
साफ झूठ बोलती है-
“आज मेरी भी आंख
जरा देरी से ही खुली थी।”
००००

रेत-घड़ी
हवा पौंछती है
धोरों पर अंकित पद-चिह्न
रहता नहीं कुछ भी शेष
रेत-घड़ी 
कण-कण का करती हिसाब
जो बीत गया
कर देती है उसको-

मुक्त !
००००
अनुवाद : नीरज दइया  

मदन गोपाल लढ़ा की कविताएं


महाजन (लूनकरनसर) बीकानेर में 2 सितंबर 1977 को जन्मे डॉ. मदन गोपाल लढ़ा युवा कवि-कहानीकार के रूप में विख्यात हैं। हिंदी में “होना चाहता हूं जल” कविता संग्रह प्रकाशित। इन दिनों आपका राजस्थानी कहानी संग्रह “च्यानण पख” चर्चा में है, आपके प्रथम कविता संग्रह “म्हारै पांती री चिंतावां” पर कमला गोइंका फाउंडेशन से किशोर कल्पनाकांत पुरस्कार मिला। संप्रति राजस्थान शिक्षा विभाग में व्याख्याता।


कौन है वह

दुनिया के

हर गांव में

अवश्य ही मिल जाएगा
आपको कपड़े सिलते दर्जी
बाल कतरते नाई
और घर संवारते कारीगर।

दुनिया के
हर घर में
आपको मिल सकता है-
काच-कंघा
और तेल-इत्र।

सुंदरता की चाहत
मनुष्य का
आदिम स्वभाव है
पर कौन है वह
जो जब चाहे
मिट्टी, धुंए और आग से
बदरंग कर जाता है
मनुष्यता का चेहरा !
००००

खुशबू
रक्त-संबंधों से
कमतर नहीं होते
आत्मा के आत्मा से रिश्ते।

धर्म, भाषा
और भूगोल के भेदों से
बहुत बड़ा होता हैं
आत्मा का आंगन
जहां किसी दीवार से
रोके नहीं रुकती
भावों की खुश्बू।

चार सौ कोस के अंतराल से
क्षण भर में आकर तुमने
बोया मेरे हृदय में
पिता-पुत्री का स्नेहिल पौधा
तब यकीनन
उसकी खुश्बू से
जगमगा उठा
ये जग-जीवन मेरा।
००००

मौन का अर्थ
फकत “हां” नहीं होता
मौन का अर्थ
होता है- विरोध भी।
मन में गूंजते हैं-
विरोधी स्वर
नहीं, नहीं मैं शामिल नहीं
तुम्हारे दल में
छल में...
अलग हूं-
कुछ अर्थों में तो हूं
आमने-सामने।

मौन में
मुट्ठियां कसी जा सकती है
रक्तिम हो सकती हैं आंखें
सहमति के स्थान पर
हिल सकती है गर्दन
विरोध में।
००००

सच्चा सच
कोई थिसारस
यदि अब हो प्रकाशित
“स्त्री” पर्यायवाची-समूह में
शामिल करना “नहर” को।

एक जैसी ही होती है-
दोनों की जीवन-यात्रा
स्त्री की आंखों में पानी
और नहर के लिए
बस पानी ही जीवन
उम्र भर सहना और बहना
और जब-तब
सूख जाने का खतरा।

नदीगर्भा
और नाम नहर....
स्त्रीलिंग होना
महज संयोग नहीं
सच्चा सच है।
००००

अनुवाद : नीरज दइया

मेरे हिस्से की चिंताएं
मुझे सवेरे उठते ही
चारपाई की निवार खींचनी है।
पहली तारीख में अभी सत्रह दिन शेष हैं
किन्तु बबलू की फ़ीस तो भरनी ही होगी।
पत्नी के साथ, रिश्तेदारी में हुई गमी पर जाना है।
कल डिपो पर फिर मिलेगा मिट्टी क तेल।
मैंने यह भी सुना है कि
फ़ीका पड रहा है ताजमहल का रंग।
सिरहाने रखी पुस्तक की मैंने
अभी आधी कविताएं ही पढी हैं।
***

कविता की ताकत
कविता
नहीं करा सकती बरसात
कविता
नहीं उगा सकती सूरज
कविता
नहीं भर सकती पेट।
किंतु कविता
अवश्य बता सकती है रास्ता-
पानी लाने का
रात गुजारने का
भूख मिटाने का।
***

अनुवाद: नीरज दइया

युवा कवि मदन गोपाल लढ़ा का प्रथम कविता संग्रह "म्हारै पांती री चिंतावां" चर्चित ।