दादाजी कहते थे
दादाजी कहते थे-
“थोड़ा रुको,
रुको बच्चों !
समय आयेगा
और उदित होगा
सोने का सूरज
इसी जंगल में
तब तक तुम
खड़े रहो- धैर्य के साथ ।”
एक दिन
जंगल में
आंधी के बवंडर से
अंधेरे ने पंख फैला दिये
कुछ नहीं दिखता
और न ही मन में सजगता आई
चारों तरफ़ सुनाई दी
मनुष्यों की भयंकर आवाजें
तरह-तरह के मनुष्य
और तरह-तरह की बोलियां
फिर चिल्लाना
और लूट-खसोट
तलवार से काट रहा
एक मनुष्य
उन सभी को ।
बंदूकों की आवाजों से
कांपती रही रात
जगते रहे पशु-पक्षी
थर-थर्राते करते
सुबह का इतंजार
अजीब चित्र है यह
छिप गया पाहड़
ध्वस्त हो गए जंगल
टूट गया भ्रम
मनुष्यता के पहरेदारों का
मनुष्यता के पहरेदारों का
दादाजी कहते थे-
“थोड़ा रुको,
रुको बच्चों !
समय आयेगा
और उदित होगा
सोने का सूरज
इसी जंगल में
तब तक तुम
खड़े रहो- धैर्य के साथ ।”
***
लौट जाना चाहिए मुझे
बस
आज से यहीं से ही
लौट जाना चाहिए मुझे वापस
क्यों कि
मेरी और मुंह उठाएं हैं
कई अपरिचित आकस्मिक दृश्य
मैं सचेत था
बहुत सचेत
मैंने पोखर के किनारे बैठ कर
उसे सागर नहीं माना
अपनेपन को ओढ़कर
गिनता रहा-
वक्त के लम्बे-लम्बे कदम
लेकिन अचरज है
लौटी जब भी चेतना
सूख गया मेरे पैरों का खून
बिखर गए बातों के डूंगर
बालू रेत के उनमान
मैं स्वीकारता हूं
इन पैरों नपी धरती को
जो मेरे लिए हैं
अनजान पखेरू-सी
मैं संभालता हूं
धीरे-धीरे छीजती
आशाओं की दमक
और सहेजता हूं
इन अलिखित इतिहास की भूलें
आने वाली पीढ़ियों के लिए ।
मुझे मालूम है
बहुत मुश्किल है
वक्त के तीखे दांतों से
खुद को अलाहदा करना
बस आज से ही यहीं से ही
लौट जाना चाहिए मुझे वापस
क्यों कि
चारों और मुंह उठाएं हैं
कई अपरिचित आकस्मिक दृश्य !
***
क्या जबाब होगा ?
हां,
अब तक मैं महसूस करता रहा हूं कभी कभी
लेकिन इतना आगे निकल आया हूं
कि तुम्हारे गुस्से का
क्या जबाब दूं ?
खुद को पूछता अवश्य हूं-
कब तक मुरझाएगा
तपती धूप को सिर पर यूं झेल कर
फूलों की कोमलता-कठोरता का
क्या कोई फर्क पड़ता है वृक्षों को
कभी पतझड़ – कभी बसंत !
जानता हूं
वह सरोवर कभी खींचता था मुझे
और मेरा इंतजार
खींचता था मुझे
वे सपने
अब एकदम पीछे छूट गए
ॠतुएं आती हैं
और सूनापन ओढ़े पत्थर पर
जहां खुदे हैं
मेरे और तुम्हारे नाम
बार बार बांचती है ।
सोचता हूं-
इन दहकती सांसों की खुशबू से
गर्म मेरी हथेलियों की रग-रग
मुझे थामता है मेरा ही खून
चट्टान-सा कठोर बन कर
उस समय मैं भींच लेता हूं
मेरी दोनों मुट्ठियां
खुद के होने के
अहसास से ।
***
काला डूंगर
मैं कब
काले डूंगर के सामने
आकर खड़ा हो गया
मालूम ही नहीं
यह डूंगर
एकदम नंगा
न ही यहां वृक्ष
न ही हरियाली
मैं
मुड़ मुड़ कर पीछे देखता हूं
उगता-छिपता सूरज
चांदनी का महकना
घूप का चिलकना
इस काले
और ऊंचे डूंगर को
देखकर डर लगता है
यहां न तो चांद सूरज हैं
न ही वर्षा
न ही नदी-नाले
इसकी जड़ों में
खड़े हैं बहुत लिग
हारे-थके
धर मजलां धर कूचां चलते हुए
मुझे लगता है
जैसे कहता है बड़ा डूंगर
तुम्हारे इस मुकाम पर
धैर्य से पैर थमाना
तुम्हारी यात्रा का
यह आखिरी मुकाम है ।
***
डूंगर पर
सुनता रहा
इस डूंगर की गाथा
अनकही बातें
और सोचता रहा
तीखे सवालों के जबाब
सवाल
जो बहते
मेरी रग-रग में
रक्त की नदी बन कर
जो धाहड़ते
तोप के गोले के उनमान
आज मैं
डूंगर पर हूं
जमीन से ऊंचा
थोड़ा ऊंचा
धरती पर बहता है
गंदा पानी
तो यहां बहती है-
निर्मल धारा
यहां का चित्र
जमीन से एकदम अलग है
अच्छा और मनमोहक
डूंगर गूंजता है
नदी की कल-कल से
मुस्कुराते हैं-
वृक्षों के पत्ते-फूल ।
उजास के छींटों से
आच्छादित है डूंगर का सीना
पत्थर-पत्थर में
पहचाने जाते हैं अनेक चेहरे
फैलते हैं घाटियों में
इतिहास के नए संदर्भ के आखर
डूंगर की गोद में
चमकता है
जीवन-जिंदगी का अपनापन
रीतता है कठिन बातों का दर्द
चारों तरफ फैलती है
एकांत दुनिया की शांति
यहां नहीं है तोप
न ही है रक्त की नदी
है मेरे करीब
एक अपठित
पर्याप्त डूंगर !
***
अनुवाद : नीरज दइया
कवि गोरधनसिंह शेखावत (1943) राजस्थानी नई कविता की पहल पत्रिका “राजस्थानी : एक” के पांच कवियों में से एक हैं । किरकिर, पनजी मारू और खुद सूं खुद री बातां नामक कविता संग्रह प्रकाशित व चर्चित । आप राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर की मासिक पत्रिका “जागती जोत” के संपादक भी रहें हैं ।
प्रणाम !
ReplyDeleteगोवर्धन जे कि अच्छी लाविते पद्वाने के लिए आभार ! सुंदर अनुवाद .
सादर
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