आ बैठे बातें करें
आ बैठे बातें करें
एक दूजे को देखें
कितने वर्ष बीत गए
साथ-साथ रहते हुए,
कितने क़रीब-क़रीब रहे हम
किंतु देख नहीं सके-एक दूजे को
झूठ नहीं कहता
मैं तो नहीं देख सका
तुम्हारी तुम जानो ।
भोगा अवश्य है
तुम्हारा अंग-अंग
किंतु देख नहीं पाया
ठुड्डी का तिल / जिसका रंग
मेरी अनभिज्ञता के अंधकार में जा मिला
क्षमा करना
अवकाश ही नहीं मिला
ये दांत कब टूट गए तुम्हारे ?
और ये सफ़ेद बाल ?
आ बैठ, ग़ौर से देखूं तुझे
कहीं इसी दौड़-भाग में
यह ज़िंदगी भाग न जाए ।
इकलौता बैल
जेठ का तपता दिन
तंदूर की भांति
सिकती साल (कमरा)
सोई हुई हो तुम
नींद में निश्चिंत
मेरे पास ही चारपाई पर
मैं लिखता-लिखता
देखता हूं तुम्हारी ओर
सिर से पसीने की लकीर
कान के क़रीब से होती हुई
छाती की तरफ़ जाने को है तैयार
सारस जैसी लंबी गर्दन पर
नस फड़क रही है
सांसों का अरहट चल रहा है
निरंतर
इसी बीच
कभी-कभार तुम बुदबुदाती हो
शायद कोई स्वप्न सता रहा होगा
जिसमें चुभ रहा होगा
गृहस्थी की गाड़ी का जूवा
तुम्हारे कांधे पर ।
क्योंकि तुम
इकलौता बैल रही हो
मेरी प्रिय आनंदी
बैल तो मैं भी हूं
पर बेकार बैल
जो जागते हुए भी
लिख रहा है कविता
और तुम हो
जो नींद में भी
खींच रही हो गाड़ी ।
अनुवाद : नीरज दइया
रामस्वरूप किसान (14 अगस्त, 1952) हनुमानगढ़ जिलै के परलीका गांव में रहते हैं । कवि कथाकार के रूप में चर्चित किसान पेशे से भी किसान हैं और रक्तकरबी के राजस्थानी अनुवाद हेतु आपको साहित्य अकादेमी सम्मान भी मिला है । आठ पुस्तकें प्रकाशित ।
ram swarop kishan ki in kavita main nari ka mahatva alag alag pratipadit hai or purush usse sahamat najar aata hai
ReplyDeleteकिसान जी के आ बेठ बात करां से अपने भविष्य की झलक देखी... और फिर थोडा समय अपने लिए भी निकलना सुरु किया ...धन्यवाद किसान जी ..!! और बहुत बहुत धन्यवाद् नीरज जी ...!!
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