अब
अनुवाद : नीरज दइया
शहर शहर जैसे
और
गांव-गांव जैसे
कहां रहे हैं अब!
लिपट कर गले मिलते थे
वे भाव कहां है अब
भाग रहें हैं सब
इस अंधी दौड़ में
एक के पीछे एक
दो घड़ी बैठ कर
सुस्तालें जहां
ऐसी छांव कहां है अब!
***
सफाई
लगा कर आग
तापने की
आदत नहीं है मेरी
पर कई बार विवशता में
यह काम भी करना पड़ता है
जब हो जाता है कूड़ा-करकट अधिक
दुर्गंध फैलने लगती है
तब झाड़-बुहार कर
लगानी ही पड़ती है आग
ताकि सफाई हो जाए
नहीं चाहते सफाया
लेकिन सफाई तो जरूरी है।
***
अनुवाद : नीरज दइया
(रामदयाल मेहरा : जलम 1 जनवरी, 1962 ; प्रकाशित राजस्थानी कविता संग्रै- “कळपती मानवता मूळकतो मनख” “मोत्यां री खोज” अर "जा भाया ससुराल" ; सम्पर्क-सम्प्रति : राजस्थान साहित्य अकादमी, हिरन मगरी, से. 4, उदयपुर-313 002 राज.)
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