दर्पन और दृष्टि
दर्पन तो
उलझाता है
दृष्टि को
दृष्टि के पार
है जो सृष्टि
उसे छिपाता है
दर्पन का काम है
छिपाना ।
जहां तक पहुंचती है दृष्टि
वहां है दृष्टि ही दृष्टि
परे रहता है दृष्टि से-
दृष्य तो
यह संबंढ है
बहुत पुराना
दृष्टि और दृश्य का !
साफ करें
दर्पन के पीछे
जो छुपा है रोगन
बन जाएगा दर्पन-
पारदर्शी
ले जाएगा दृष्टि को वहां
जहां एक सर्वथा नई
अनदेखी सृष्टि
है प्रतीक्षारत
किसी दृष्टि में
बस जाने को ।
***
अनुवाद : नीरज दइया
कवि भगवती लाल व्यास (10 जुलाई, 1941) राजस्थानी कविता संग्रह “अणहदनाद” के लिए साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत हैं । अगनीमंतर, सबद-राग आदि कविता संग्रह प्रकाशित व चर्चित । आप राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर की मासिक पत्रिका “जागती जोत” के संपादक भी रहें हैं । हिंदी में भी समान रूप से लेखन ।
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