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कुंदन माली की कविताएं



घर छोड़ते समय
जब-जब
निकलता है वह
संभालने अपनी
नौकरी और कामकाज को

घर के सदस्य
देने लगते हैं सीख
और माँ आशीष-
पहुंचते ही वहां
लिखना कागद
राजी-खुसी का समाचार देना

सुना है
बहुत ज्यादा होती है
वहां सर्दी और गर्मी

ध्यान रखना
तबीयत का
ढंग की खाना खुराक
सहन कर लेना
यदि कोई निकाल भी दे
एक-आध गाली
रखना याद परदेश में
जा रहा है कमाने-खाने
युद्ध के लिए नहीं

ऊंचे सुर में
कभी मत बोलना
बड़े आदमियों से

प्यार-मोहब्बत रखना
पड़ौसियों से
कभी बिगाड़ना नहीं

सहना पड़े चाहे
चार पैसे का
नुकसान

कुल-कुटंब पर
नहीं करे कोई
थूं-थूं ।

स्वभाववश
कहती है
बड़ी बहन-
मत सहना
परदेश में दुख
जरूरत हो तो
मंगा लेना रुपए-पैसे

चलती है जैसे चल जाएगी
यहां तो अपनी गाड़ी
घर ही तो हैं
परदेश में थोड़े ही हैं

आते रहना
वार-त्यौहार
एकेला नहीं है तू
हम भी हैं
तेरे साथ जुड़े तेरे पीछे ।

बस तक छोड़ने
चले आते है साथ
भाई और यार-दोस्त
होती रहती हैं
बातें और बातें

हम पहुंच जाते हैं
दुनिया-जहान के समाचारों में
उतरते जाते हैं-
स्मृति की गहरी घाटियों में

बातों ही बातों में
आ जाती है बस
अर बस में
पहुंच जाता है सामान

और वह
हो जाता है जल्दी से
बस में सवार

पलक झपकते ही
अपना स्थान
छोड़ देती है बस
खड़े रह जाते हैं
यार-दोस्त-भाई

खड़ा हो जैसे
कोई वट-वृक्ष
और उड़ गया हो
उस पर बैठा कोई
एक पक्षी !
***

घर छोड़ने के बाद
कपड़वंज आने के बाद
अधिक नहीं तो
दो सौ पचीस किलोमीटर
पीछे छूट जाता है उदयपुर

छूट जाते हैं
बंधु-बांधव
घर और गांव
अपने खेत और खलिहान
कच्चे-पक्के घर
टूटी हुई दुकान

छूट जाते हैं
बाग-बगीचे
चिड़ा-चिड़ी
घर के गमले
टेबल पर रखे फूलदान

छूट जाती हैं-
मिट्टी की मुस्कान
मांडे के गीत
होठों की हंसी
तीज और त्यौहार
एक का बिणज
दूजे का व्यापार

फिर-फिर लौटता
आता है याद
बचपन में जो सुना
माँ ने जो गाया गीत
गीत के बोल-
बन्ना ओ…
दीपावली के दीप जले
और रेल गई गुजरात ।

कौन जानता था
अपने ही गाँव
घर और देश में
आएगी वह रेल
रेल में बैठ कर
पड़ेगा जाना
माँ के बेटे को गुजरात

सच हो जाएंगे
माँ के गाए गीत के शब्द
इतने वर्षों बाद
और इस तरह !

सच हो गया
माँ का गाया गीत
नहीं हुई सच
दादी माँ की बात
जो कहा करती थीं-
कम खाना गम खाना
घर छोड़ कर कहीं मत जाना !
***

अनुवाद : नीरज दइया


कुंदन माली (14 अक्टूबर, 1957) राजस्थानी में कविता, आलोचना और अनुवाद के क्षेत्र में विख्यात नाम है । सागर पांखी कविता संग्रह पर राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का सूर्यमल मीसण शिखर पुरस्कार, आलोचना री आंख सूं पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार और गुजराती निबंध संग्रह- गोस्टी (उमाशंकर जोशी) के राजस्थानी अनुवाद के लिए भी साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं । राजस्थानी के साथ-साथ समान रूप से हिंदी में भी लिखना और अंग्रेजी पढ़ना एक दुर्लभ संयोग है । आपके साद्यप्रकाशित "अंजळ पाणी" कविता संग्रह की दो कविताओं का अनुवाद यहां प्रस्तुत किया गया है । 


2 comments:

  1. अध्भुत,नीरज जी....सुरजीत पातर जी की पंक्तियां हैं...
    ...ना जायो वे पुत्तरो,दलालां दे आखे,
    ...मरण लई किथे दूर मावां तो चोरी ।..
    ...यानि इन समाज के ठेकेदारों के कहने में आकर, जननी से दूर तो मरण के लिए भी मत चले जाना....
    साझा करने के लिए धन्यवाद ।

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  2. भाई साब प्रणाम !
    कुंदन जी प्रणाम!
    दोनों कविताए बेहद सुदर है और मन को छूने वाली है .
    साधुवाद ,
    सादर !

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