डॉ. अर्जुनदेव चारण (10 मई, 1954) आधुनिक राजस्थानी के प्रख्तात नाटकार, आलोचक-कवि। अनेक पुस्तकें प्रकाशित। चर्चित पुस्तकें-राजस्थानी कहाणी : परंपरा-विकास, रिंधरोही, मुगतीगाथा, विरासत आदि । नाटक “घरमजुद्ध” पर साहित्य अकादेमी तथा राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादेमी का शिखर पुरस्कार, कविता संग्रह “घर तौ एक नाम है भरोसै रौ” पर बिहारी पुरस्कार। जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के राजस्थानी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत। राजस्थान संगीत नाटक अकादमी का पूर्वअध्यक्ष, वर्तमान में एन.एस.डी. के उपाध्यक्ष एवं साहित्य अकादेमी नई दिल्ली की राजस्थानी भाषा परामर्श मंडल के संयोजक।
ये किताबें
बेटा !
ये किताबें
छिन लेंगी
तुम से तुम्हारे सपनें,
इन के सांचों में
तुम जो ढले
बन बैठोगे-
कोई मसीन
इनसे बचना
खुद को बचाना
खुद को रचना
***
पढ़ने का अभिप्राय
पुत्र !
पुस्तकें पढ़ने का अभिप्राय
कभी ज्ञान नहीं हुआ करता
वह तो उपजता है
खुद को रचने में
वह दर्द
जो प्रस्फुटित होता है
अक्षरों से
हां... वही तो ईश्वर है
शेष सभी नाम है-
भ्रम के, छलावे के।
***
उसके पास
होती है उसके पास-
दो आंखें
स्वप्न-विहीन
होते हैं उसके पास-
होंठ
निःशब्द
होते हैं उसके पास-
हाथ
दूसरे के समक्ष
फैलाने के लिए
होते हैं उसके पास-
पैर
किंतु वह जीती है
अपनी पूरी जिंदगी
जैसे कोई विकलांग !
***
तुम जिंदा कब थीं मां
तुम जिंदा कब थीं मां
मेरे पिता ले आए थे
दूसरी नारी
तब तुम्हारे भार्या होने का भ्रम
बिखर गया खंड-खंड होकर
उसी दिन मर गई थी तुम तो
मां !
मैं तुम्हारा पुत्र
तुम्हारी ही छाती रौंदता हुआ आया
और मुकर गया अपनी पहचान से
पहचान, जो गढ़ी थी तुम ने
मां तुम्हारा मरण तो किसी युगांत जैसा है
संलग्न कड़ियों की देखने टूटन
आंखें तो थी
पर नहीं थी उन में दृष्टि
तुम्हारा घर
जो बसता था पति की आंखों में
और वह जो फेर लेता मुख
जब भी होती इच्छा
जंजीरों तले जहां कटी जिंदगी
उसे घर मत कहो मां
घर तो एक नाम है भरोसे का
जो विवाह-मंडप में बैठने से जन्मा था
मां ! तुम्हें लाए सही-सलामत
कि निकले अरथी एक दिन तुम्हारी....
मां !
तुम जिंदा कब थीं ?
***
अनुवाद : नीरज दइया