होते हैं रंग हजार
मैं ने यह कब कहा
मैं ने नहीं कही यह बात-
हम-तुम एक ।
लेकिन
तुम तक पहुंची जो बात
वह मेरी नहीं
फिर कैसे हो सकता है- अर्थ मेरा ?
जरूरत है इतना-सा जान लें
यह दुनिया है बाजार
और हवा के होते हैं रंग हजार !
***
ठूंठ की मुस्कान
मेरी आंखों में अटक गई
ठूंठ की मुस्कुराहट
दीखी मुझे
ठूंठ के सहारे खड़ी
एक लता
अपने मीठे फलों की सुगंध साथ लिए
कह रहा था ठूंठ-
खड़ी रह
बस ऐसे ही खड़ी रह
यह सुन कर बोली लता-
अरे ! देखो तो सही
बूढ़े हो चले की अक्कल खराब हुई !
***
खड़ा तो हूं
हां SS
ठीक है
आज यहां
पक्षी नहीं आते-गाते
नहीं फूटती कोंपल कोई
नहीं लगते फल-फूल
लेकिन
इस तरह तो मत काटो
ठूंठ हूं तो क्या
कभी तो
यहां भी हुआ करता था
सब कुछ : फल-फूल-पत्ते
आया करते थे पक्षी
गाते थे गीत
ठीक है
आज अकेला हूं
लेकिन वक्त की मार झेलता
खड़ा तो हूं !
***
एक सपना होता है
बच्चे की आंख में
दोस्तों के संग
वह खेलते-खेलते बनाता है
रेत का घर
खुद बना कर
खुद ही ढाहता है
सच कहती है मां-
बच्चे भगवान का रूप होते हैं !
***
इक्कीसवी सदी
एकदम अनावृत
चिकनी जांघे
गदराई बाहें और
भरे-पूरे श्रीफल
आंखें एकदम लाल
मानो छक कर पी रखी हो-
हत्थकढ़ी !
जहां जाता हूं
मेरे गले पड़ती है
यह उफनती नदी
पूछता हूं नाम तो
मिलता है एक ही जबाब
मैं इक्कीसवीं सदी !
***
हवा हथियार है
मैं चीखता-चिल्लाता हूं
लेकिन आप नहीं सुनते
एक बहरापन पसरा है
मेरे और आप के बीच
मैं तड़फता-छटपटाता हूं
लेकिन आप नहीं देखते
एक चुंधियाहट फैली है
मेरे और आप के बीच
मैं करता हूं अनुनय-विनय
लेकिन आप गौर नहीं करते
पगलपन पसरा है
एक सनक-सी फैली है
मेरे और आप के बीच
लेकिन
अब नहीं सहूंगा
यह बहरापन
यह चुंधियाहट
यह सनक
आप के खिलाफ हो रही है हवा
जो मेरी
और मुझ जैसों की बढ़ाती है हिम्मत
अब हमारे लिए
यह हवा हथियार है ।
***
सपना एकदम हरा
कोख में बीज
सड़क के नहीं
मिट्टी के होता है
और वही थामती है पानी
जब बरसता है पानी
पीती है वह बूंद-बूंद
कोख में उसकी
जी उठते हैं सुप्त बीज
सूनी सपाट धरती पर
प्रत्यक्ष दिखता हैं
सांस लेता एक सपना
एकदम हरा !
***
बाहाना
आदमी को मारने के लिए
आदमी ढूंढ़ता है-
गाय
सूअर
या सिर के बाल
धरती लाल होने के बाद
पछतावा करता है आदमी
कुत्तों की मौत मरे आदमियों को देख कर
बंदोबस्त करता है
आगे फिर नहीं मरे आदमी
आदमी नहीं मरने के इस बंदोबस्त के लिए
फिर से मरते हैं आदमी
अब मरे हुए आदमियों की मौत का
बदला लेने के लिए
शुरू होता है एक अंतहीन युद्ध
आगे से आगे चलता रहता है
यह जानते हुए भी
कि नहीं चलना चाहिए !
आदमी के भीतर बसे दरिंदे को
बस कोई न कोई बाहाना चाहिए !
***
नहीं क्या मां
हां SS
देखो
यह मैं हूं मां
ये तेरी
आंख है मां
आंख में
तिल है मां
तिल में
तूं है मां
आंख के तिल से
दुनिया है मां
मेरी दुनिया
तूं है मां ।
***
‘क’ से कविता
पिता की जिंदगी में पीड़ा
क से कर्ज
मां की आंखों में सपना
क से कमाई
भाइयों के लिए भविष्य
क से कमठाणा
मेरे लिए-
क से कविता !
***
शहर : एक बिम्ब
बड़े शहर में
संकड़े कमरों में
आदमियों के पास
बैठे
सोए
खड़े
आदमी
आदमी
आदमी
जैसे ठूंस-ठूंस कर भरी हो-
पुरानी और बेकार फाइलें-
बोरों में !
***
वे
वे आकाश में उडते
मैली आंख से करते हैं
धवल धरती का मुआयना
वे धरती पर आते हैं
बंदरों को बांटते हैं
धारदार उस्तरे
बंदर एक दूसरे के
नाक-कान-गला
काटने का तलाशते हैं मौका
जहां तक पहुंचता है हाथ
करते हैं वे घाव
मरते हैं आदमी
धरती होती है रक्त-रंजित
लेकिन उन के होंठों खिलती है-
मुस्कुराहट !
मजे करते उडाते है अंगूरी शराब
असली धी में पके खाते हैं मुर्गे
कच्ची-कोमल-अनछुई सांसों के सागर में
लगाते है वे गोते !
और उन के बंदर
मचाते हैं उत्पात घूम घूम कर
वे हर्षित हो कर मनाते हैं उत्सव !
***
तुम्हारे होने की
पैरों तले धरती है
सिर पर खुला आकाश
है चारों तरफ खुली हवा
हवा कि जिस में
है तुम्हारे होने की सुगंध
कहीं भी जाऊं
तुम हो साथ मेरे
तब मुझे डर किस बात का !
***
एक दीपक
आज मैं ने
दिन में
सूरज से संबंध जोड़ा है
आज मैं ने
रात को
एक दीपक जलाया है
सुनो !
अंधेरे और आंधी को
संदेश कर देना !
***
सबसे पहले
वह समझाते हैं
लड़ो ।
धर्म है लड़ना
धरती और आदमी को
बचाने के लिए लड़ो ।
शुरू होती है लड़ाई
सब से पहले
रौंदी जाती है धरती
मरता है आदमी !
***
तटस्थ लोगों के देश में
ठीक दोपहर
उछाल रहा था सूरज
आकाश से अंगारे
मैंने पूछा उस से,
“आताप कितना तेज है ?”
उन्होंने हंस कर कहा-
“होगा ।”
अमावस्या की रात
यदि मैं पूछ्ता उन से-
“अंधेरा कितना काला है !”
वह हंस कर कहेंगे-
“होगा ।”
महसूस किया मैंने
नहीं है उन का सरोकार-
सर्दी की ठंड से
गर्मी की तपन से
फागुन की हवा से
चौमासे की वर्षा से
बसंत और पतझड़ से
खिलते-झरते फूलों से
या हरदम साथ रहने वाले कांटों से,
नहीं है उन का सरोकार !
वह तो तटस्थ हैं
एकदम तटस्थ
आदमी की जिंदगी और मौत से भी
विचलित नहीं होते
उन के लिए तो
कुछ भी हो
लेकिन हो जरूर
वह तो अलापते हैं
बस एक ही राग
जो कुछ भी हो, कहेंगे-
होगा… होगा… होगा…
***
कोयला इतना काला नहीं होता
तुम मेरा बार-बार अपमान मत करो
यह क्यों भूल जाते हो तुम
सहने की भी एक हद होती है ।
तुम्हारे इस थप्पड़ का जबाब
अब मैं दूंगा थप्पड़ से
(एक पर थप्पड़ खा कर
दूसरा गाल तुम्हारे सामने कर के
मैं गांधी बनना नहीं चाहता ।)
तुम्हारा टेरीकॉटन का सूट
बाटा के चमचमाते जूते
रंगीन टाई और चसमा
होगी फैशन इस युग की
लेकिन लट्ठे-डोवटी का कुर्ता और फायजामा
घिसे हुए तलवों वाली चप्पल
मैं भी पहने रखता हूं
(मैं निर्वस्त्र नहीं घूमता !)
चैम्बर में तुम्हारे घूमता है पंखा
घंटी बजाते ही
होता है हाजिर चपरासी
लेकिन सुनो !
मैं भी चार टांगों वाली कुर्सी पर बैठा हूं ।
(मैं बीच आकाश में नहीं लटका !)
तुम हर्षाते हो
कि तुम्हारे हस्ताक्षरों से
पास होता है मेरा वेतन-बिल,
लेकिन सुनो !
तीस दिन तक
खून-पसीना एक करने के बाद
मेरे आंगन में भी फुदकता है
पहली तारीख का सुख
(झूठा बखान कर बख्शीश लेने वाला
चारण-भाट मैं नहीं !)
माना तुम हीरे हो खरे
लेकिन मैं भी ‘कार्बन ग्रुप’ का हूं,
सुनो !
मैं कोयला हूं
पर याद रखना
कोई भी कोयला इतना काला नहीं होता
कि जलाने पर वह लाल नहीं हो ।
***
अनुवाद : नीरज दइया
सांवर दइया (10 अक्तूबर, 1948 - 30 जुलाई, 1992) कवि, कथाकार और व्यंग्य लेखक की हिंदी में “दर्द के दस्तावेज” (1978 ग़ज़ल संग्रह), “उस दुनिया की सैर के बाद” (1995 कविता-संग्रह), एक दुनिया मेरी भी (कहानी संग्रह) तथा राजस्थानी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई- प्रमुख कविता संग्रह है- मनगत, आखर री औकात, हुवै रंग हजार, आ सदी मिजळी मरै आदि । साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत ।
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